पुरुषोत्तम मास

पुरुषोत्तम मास का महत्त्व, विधि और फल के बारे में विस्तृत जानकारी


 

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रेवती नक्षत्र का उपचार और उपाय क्या है?

जन्म से बारहवां दिन या छः महीने के बाद रेवती नक्षत्र गंडांत शांति कर सकते हैं। संकल्प- ममाऽस्य शिशोः रेवत्यश्विनीसन्ध्यात्मकगंडांतजनन सूचितसर्वारिष्टनिरसनद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं नक्षत्रगंडांतशान्तिं करिष्ये। कांस्य पात्र में दूध भरकर उसके ऊपर शंख और चन्द्र प्रतिमा स्थापित किया जाता है और विधिवत पुजा की जाती है। १००० बार ओंकार का जाप होता है। एक कलश में बृहस्पति की प्रतिमा में वागीश्वर का आवाहन और पूजन होता है। चार कलशों में जल भरकर उनमें क्रमेण कुंकुंम, चन्दन, कुष्ठ और गोरोचन मिलाकर वरुण का आवाहन और पूजन होता है। नवग्रहों का आवाहन करके ग्रहमख किया जाता है। पूजा हो जाने पर सहस्राक्षेण.. इस ऋचा से और अन्य मंत्रों से शिशु का अभिषेक करके दक्षिणा, दान इत्यादि किया जाता है।

चार्वाक दर्शन के अनुसार जीवन का लक्ष्य क्या है?

चार्वाक दर्शन के अनुसार जीवन का सबसे बडा लक्ष्य सुख और आनंद को पाना होना चाहिए।

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छोटा चारधाम में से शिवमन्दिर कौनसा है ?

भक्तजनों के मनोरथ को कल्पवृक्ष के समान पूर्ण करने वाले वृन्दावन की शोभा के अधिपति अलौकिक कार्यों द्वारा समस्त लोक को चकित करने वाले वृन्दावन बिहारी पुरुषोत्तम भगवान् को नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ नारायण,
श्रीगणेशाय नमः ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ श्रीगोपीजनवल्लभाय नमः ॥ वन्दे वन्दारुमन्दारं वृन्दावन,विनोदिनम् ॥ वृन्दावनकलानाथं पुरुषोत्तममद्भुतम् ॥ १ ॥ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् | देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ २ ॥ नैमिषारण्यमाजग्मुर्मुनयः सत्रकाम्यया ॥ असितो देवलः पैलः सुमन्तुः पिप्पलायनः ॥ ३ ॥ सुमतिः काश्यपचैव जाबालिभृगुरङ्गिराः ॥ वामदेवः सुतीच्णश्च शरभङ्गश्च पर्वतः || ४ || आपस्तम्बोऽथ माण्डव्यो नर, नरोत्तम तथा देवी सरस्वती और श्रीव्यासजी को नमस्कार कर जय की इच्छा करता हूँ ॥ २ ॥ यज्ञ करने की इच्छा से परम पवित्र नैमिषारण्य में आगे कहे हुए बहुत से मुनि आये । जैसे - असित, देवल, पैल, सुमन्तु, पिप्पलायन ॥ ३ ॥ सुमति, कश्यप, जात्रालि, भृगु, अङ्गिरा, वामदेव, सुतीक्ष्ण, शरभंग, पर्वत ॥ ४ ॥ आपस्तम्ब, माण्डव्य, अगस्त्य, कात्यायन, रथीतर, ऋभु, कपिल, रैभ्य ॥५॥ गौतम, मुद्गल, कौशिक, गालव, ऋतु, अत्रि, बभ्रु, त्रित, शक्ति, बुध, बौधायन, बसु ॥ ६ ॥ कौण्डिन्य, पृथु, हारीत, धूम्र, शङ्कु, सङ्कृति, शनि, विभाण्डक, पङ्क, गर्ग, कागाद ||७|| जमदग्नि, भरद्वाज, धूमप, मीनभार्गव, कर्कश, शौनक, तथा महातपस्वी शतानन्द ॥ ८ ॥ विशाल, वृद्धविष्णु, जर्जर, ऽगस्त्यः कात्यायनस्तथा ॥ रथीतरो ऋभुश्चैव कपिलो रैभ्य एव च ॥ ५॥ गौतमो मुद्गल- चैव कौशिको गालवः क्रतुः । त्रिभुस्त्रितः शक्तिर्बुधो बौधायनो वसुः ॥६॥ कौडिन्यः पृथुहारीतौ धूम्रः शङ्खश्च सङ्कतिः ॥ शनिर्विभाण्डकः पङ्को गर्गः काणाद एव च ॥ ७ ॥ जमदग्निर्भरद्वाजो धूमपो मौनभार्गवः ॥ कर्कशः शौनकचैव शतानन्दो महातपाः ॥ ८ ॥ विशालाख्यो विष्णुवृद्धो जर्जरो जयजङ्गमौ ॥ पारः पाशधरः पूरो महाकायोऽथ जैमिनिः ॥ ६ ॥ महाग्रीवो महाबाहुर्महोदरमहाबलौ । उद्दालको महासेन आर्त चामलकप्रियः ॥१०॥ ऊर्ध्वचाहुरूर्ध्वपाद एकपादश्च दुर्धरः ॥ उग्रशीलो जलाशी च पिङ्गलो त्रिस्तथा ॥११॥
जय, जङ्गम, पार, पाशधर, पूर, महाकाय, जैमिनि ॥ ६ ॥ महाग्रीव, महाबाहु, महोदर, महाचल, उद्दालक, महासेन, आर्त, आमलकप्रिय ॥ १० ॥ उर्ध्वबाहुः ऊर्ध्वपाद, एकपाद, दुर्धर, उग्रशील, जलाशी, पिङ्गल, अत्रि, ऋ ॥ ११ ॥
शाण्डीरः करुणः कालः कैवल्यश्च कलाधरः ॥ श्वेतबाहू रोमपादः कटुः कालाग्निरुद्रगः ॥ १२ ॥ श्वेताश्वतर एवाद्यः शरभङ्गः पृथुश्रवाः । एते सशिष्या ब्रह्मिष्ठा वेदवेदाङ्गपारगाः ॥ १३ ॥ लोकानुग्रहकर्तारः परोपकृतिशालिनः ॥ परप्रियरताश्चैव श्रौतस्मार्तपरायणाः ॥१४॥ नैमिषारण्यमासाद्य सत्रं कर्तुं समुद्यताः ॥ तीर्थयात्रामथोद्दिश्य गेहात् सुतोऽपि निर्गतः ॥ १५ ॥ पृथिवीं पर्यटन्नेव नैमिषे दृष्टवान् मुनान् ॥ तान् सशिष्यान्नमस्कर्तुं संसारार्णवतारकान् ॥ १६ ॥ सूतः प्रहर्षितः प्रागाद्यत्रासंस्ते मुनीश्वराः ॥ ततः सूतं समायान्तं रक्तवल्कलधारिणम् ॥१७॥
यज्ञ करने को तत्पर हुये । इधर तीर्थयात्रा की इच्छा से सूतजी भी अपने आश्रम से निकले || १५ || और पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उन्होंने नैमिषारण्य में आकर शिष्यों के सहित समस्त मुनियों को देखा । संसारसमुद्र से पार करनेवाले उन ऋषियों को नमस्कार करने के लिये ॥ १६ ॥

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