कार्तिक मास के महत्त्व के बारे में विस्तार से बतानेवाला पुस्तक - पद्मपुराण से
अष्टम भाव के ऊपर चन्द्रमा, गुरु और शुक्र तीनों ग्रहों की दृष्टि हो तो देहांत के बाद भगवान श्रीकृश्ष्ण के चरणों में स्थान मिलेगा।
जन्म से बारहवां दिन या छः महीने के बाद रेवती नक्षत्र गंडांत शांति कर सकते हैं। संकल्प- ममाऽस्य शिशोः रेवत्यश्विनीसन्ध्यात्मकगंडांतजनन सूचितसर्वारिष्टनिरसनद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं नक्षत्रगंडांतशान्तिं करिष्ये। कांस्य पात्र में दूध भरकर उसके ऊपर शंख और चन्द्र प्रतिमा स्थापित किया जाता है और विधिवत पुजा की जाती है। १००० बार ओंकार का जाप होता है। एक कलश में बृहस्पति की प्रतिमा में वागीश्वर का आवाहन और पूजन होता है। चार कलशों में जल भरकर उनमें क्रमेण कुंकुंम, चन्दन, कुष्ठ और गोरोचन मिलाकर वरुण का आवाहन और पूजन होता है। नवग्रहों का आवाहन करके ग्रहमख किया जाता है। पूजा हो जाने पर सहस्राक्षेण.. इस ऋचा से और अन्य मंत्रों से शिशु का अभिषेक करके दक्षिणा, दान इत्यादि किया जाता है।
श्रीगणेशाय नमः ॥ सूत उवाच ॥ श्रियः पतिमथामंत्र्य गते देवर्षिसत्तमे । हर्षोत्फुल्लानना सत्या वासुदेवम- थाब्रवीत् ॥१॥ सत्योवाच ॥ धन्यास्मि कृतकृत्यास्मि सफलं जीवितं मम । मज्जन्मनो निदाने च धन्यौ तौ पितरौ मम ॥२॥ यो मां त्रैलोक्यसुभगां जनयामासतुर्ध्रुवम् । षोडशस्त्रीसहस्राणां वल्लभाऽहं यतस्तव ॥ ३ ॥ यस्मान्मयादिपुरुषः कल्पवृक्षसमन्वितः । यथोक्तविधिना सम्यङ्नारदाय समर्पितः ॥४॥ यद्वार्त्तामपि जानन्ति भूमौ संस्था न जन्तवः । सोऽयं कल्पद्रुमो गेहे मम तिष्ठति सांप्रतम् ॥५॥ त्रैलोक्याधिपतेश्चाहं श्रीपतेरतिवल्लभा । अतोऽहं प्रष्टुमिच्छामि किंचित्त्वांमधुसूदन ॥ ६ ॥ यदि त्वं मत्प्रियकरः कथयस्वात्र विस्तरम् । श्रुत्वा तच्च पुनश्चाहं करोमि हितमात्मनः ॥७॥ यथाकल्पं त्वया देव वियुक्ता स्यां न कर्हिचित् ॥८॥ सूत उवाच ॥ इ त प्रियावचः श्रुत्वा स्मेरास्यः स बलानुजः ॥ सत्याकरं करे धृत्वाऽगमत्कल्पतरोस्तलम् ॥ निषिध्यानुचरं लोकं सविलासः प्रियान्वितः ॥९॥ प्रहस्य सत्यामामंत्र्य प्रोवाच जगतां पतिः । तत्प्रीतिपरितोषोत्थलसत्पुल- किताङ्गकः ॥ १० ॥
श्रीगणेशाय नमः ।। अथ भाषार्थबोधिनी टीका लिख्यते ।। श्लोकः- ध्यात्वा श्रीगुरुपादपद्ममनिशं नत्वा गिरां देवतां माहात्म्यं खलु कार्तिकस्य निखिलं देशीयया भाषया । भक्तानन्दकरं कथाऽमृतरसास्वादास्पदं श्रृण्वतां श्रीमत्केशवशर्मणाद्य विवृतं श्रीकृष्णभक्ति- प्रदम् ।। नैमिषारण्यक्षेत्रमें सूतजी अट्ठासी हजार शौनकादि ऋषियोंसे कहते हैं कि जब नारदजी भगवान्का दर्शन करके चले गये तब सत्यभामा प्रफुल्लितमुखं हो लक्ष्मीपति श्रीवासुदेव भगवान् से कहने लगीं ॥१॥ सत्य भामा बोली कि मैं धन्य हूं, मेरा जन्म सफल है, मेरे जन्मके देनेवाले माता पिता भी धन्य हैं जिन्होंने तीनों लोकोंमें सुंदर मुझको उत्पन्न किया जो में सोलह हजार स्त्रियोंमें आपकी प्यारी हूं ||२|| ३ || जिससे मैंने आदिपुरुष कल्पवृक्षसहित यथोक्तविधिसे नारद मुनिके लिए समर्पण किया ।। ४ ।। जिसकी वार्ताको भूमिमें स्थित जीव नहीं जानते हैं वह यह कल्पवृक्ष मेरे घरमें अब वर्तमान है ||५|| त्रिलोकीके नाथ श्रीपति जो तुम हो तुम्हें मैं अति प्यारी हूं । हे मधुसूदन ! इससे मैं आपसे कुछ प्रश्न करनेकी इच्छा करती हूं ||६|| यदि आप मेरे हित करनेवाले हैं ? तो विस्तारसे कार्तिकमाहात्म्यको कहो, उसे सुनकर फिर में अपना हित करूंगी ||७|| हे देव ! प्रत्येक कल्पमें आपसे मेरा वियोग न हो ॥८॥ सूतजी बोले कि, ऐसे प्यारीके वचन सुनकर श्रीकृष्णजी मुसुकराकर सत्यभामाका हाथ पकड़कर कल्पवृक्षके नीचे चले गये और सेवक लोगोंको निषेध करके विलासयुक्त प्रिया समेत बैठे ।।९।। उसके बाद जगत्पति श्रीकृष्णजी प्यारीकी प्रीतिसे उत्पन्न हुए आनंदसे पुलकित हो प्रियाको संबोधित कर मुसुकराकर बोले ।।१०।।
श्रीकृष्ण उवाच । न मे त्वत्तः प्रियतमा काचिदन्या नितंबिनी । षोडशस्त्रीसहस्राणां प्रिया प्राणसमा ह्यसि ॥ ११॥ त्वदर्थं देवराजोऽपि विरुद्धो देवतैस्सह । त्वया यत्प्रार्थितं कान्ते शृणु तच्च महाद्भुतम् ॥ १२ ॥ सूत उवाच ॥ एकदा भगवान्कृष्णस्सत्यायाः प्रियकार्यया । वैनतेयं समारूढ इन्द्रलोकं तदाऽगमत् ॥ १३॥ कल्पवृक्षं याचितवान्सो- ऽवदन्न ददाम्यहम् । वैनतेयस्तदा क्रुद्धस्तदर्थं युयुधे तदा ॥१४॥ गोलोके गरुडो गोभिर्युद्धं चैव चकार सः । गरुडस्य तु तुंडेन पुच्छकर्णास्तदाऽपतन् ॥ १५ ॥ रुधिरञ्च पपातोर्व्या त्रीणि वस्तून्यतोऽभवन् ॥ कर्णेभ्यश्व तमालं च पुच्छाद्गोभी बभूव ह ॥ १६॥ रुधिरान्मेहँदी जाता मोक्षार्थी दूरतस्त्यजेत् । तस्मादेवत्रयं चैव नहि सेव्यं नरैः प्रिये ॥ १७॥ गावस्ता गरुडं शृंगैः प्रजहुः कुपितास्तदा । गरुत्मतस्त्रयः पक्षाः पृथिव्यामपतन्प्रिये ॥ १८॥ पक्षात्प्राथमिकाज्जातो नीलकण्ठः शुभात्मकः । द्वितीयाच्च मयूरो वै चक्रवाकस्तृर्त यकः ॥ १९॥ दर्शनाद्वै त्रयाणां तु शुभं फलमवाप्नुयात् । तस्मादिदमुपाख्यानं वर्णितं च मया प्रिये ॥२०॥ सुपर्णदर्शनाच्चैव यत्फलं लभते नरः । तत्फलं प्राप्नुयात्तेषां दर्शनाद्वै ममालयम् ॥ २१॥ अदेयमपि वाऽकार्यमकथ्यमपि यत्पुनः । तत्करोमि कथं प्रश्नं कथयामि न मत्प्रिये ॥२२॥
श्रीकृष्णाजी बोले कि ; हे प्यारी ! मुझे तुमसे अधिक कोई स्त्री प्यारी नहीं है, सोलह हजार स्त्रियों में तू ही प्राण के समान प्यारी है ।। ११ ।। तेरे लिये देवताओं समेत इन्द्रने भी विरोध किया और तुमने जो याचना की वह महाद्भुत है, हे प्यारी ! मुझसे श्रवणकर ।। १२ ।। सूतजी बोले कि ; एक समय भगवान् कृष्ण सत्यभामाका प्रिय करनेकी इच्छा से गरुड़पर चढ़े हुए इंद्रके लोकको गये ।। १३ ।। वहां जाकर कल्पवृक्षको मांगा तब इंद्रने कहा कि मैं नहीं दूँगा तब गरुड़जी क्रोधित हो उस कल्पवृक्षके लिये युद्ध करने लगे ।। १४ ।। फिर गरुड़जी गोलोकमें गौओंसे युद्ध करने लगे, तब गरुड़की चोंचकी मारसे उनकी पूंछ और कान कटकर गिर पड़े ।। १५ ।। रुधिर भूमिमें गिरने लगा, इन तीनोंसे तीन वस्तु उत्पन्न हुईं अर्थात् कानसे तमाल, पूंछसे गोभी और रुधिरसे मेहँदी हुई ।। १६ ।। अतः मोक्षकी इच्छावाले पुरुष इनको दूरही से त्याग दें हे प्यारी ! इन तीनोंको मनुष्य कभी न सेवन करे ।। १७ ।। पीछे गायोंने भी गरुड़जीको सींगोंसे मारा। हे प्यारी ! तब गरुड़जीके तीन पंख धरतीमें गिर पड़े ।। १८ ।। उनमें पहिलेसे नीलकण्ठ उत्पन्न हुआ, दूसरेसे मोर और तीसरेसे चकवा चकवी ।।१९।। इन तीनोंके दर्शन से शुभ फल मिलते हैं, हे प्यारी ! अतः मैंने इस उपाख्यानका वर्णन किया है ||२०|| जो फल गरुड़जीके दर्शनसे मिलता है वह इन तीनोंके दर्शनमात्र से प्राप्त होता है और उसके बाद मेरा धाम मिलता है ||२१|| हे प्यारी ! जो न देनेयोग्य न करने योग्य और न कहने योग्य वह सब में उत्तम बातें करूँगा और तुमसे कहता हूँ ||२२||
तत्पृच्छ सर्वे कथये यत्ते मनसि वर्तते ॥ सत्योवाच ॥ दानं व्रतं तपो वामि किं नु पूर्व मया कृतम् ॥ २३ ॥ येनाहं मर्त्यजा मर्त्यभवानीताऽभवं किल । तवाङ्गार्द्धहरा नित्यं गरुडासनगामिनी ॥२४॥ इन्द्रादिदेवतावास- मगमं या त्वया सह। अतस्त्वां प्रष्टुमिच्छामि किं कृतं तु मया शुभम् ॥ २५ ॥ भवान्तरे च किंशीला का वाह कस्य कन्यका ॥ श्रीभगवानुवाच ॥ श्रुणुष्वैकमनाः कान्ते यत्कृतं पूर्वजन्मनि ॥ २६ ॥ पुण्यव्रतं कृतवती तत्सर्व कथयामि ते ॥ यत्कर्म तु कृतं पूर्वे यस्य त्वं कन्यका प्रिये ॥२७॥ आसीत्कृतयुगस्यान्ते मायापुर्वी द्विजोत्तमः । आत्रेयो देवशर्मेति वेदवेदाङ्गपारगः ॥ २८ ॥ आतिथेयोऽग्निशुश्रूषी सौरव्रतपरायणः । सूर्यमाराधयन्नित्यं साक्षात्सूर्य इवापरः ॥२९॥ तस्यातिवयसश्चासीन्नान्ना गुणवती सुता ॥ अपुत्रः स स्वशिष्याय चन्द्रनाम्ने ददौ सुताम् ॥३०॥ तमेव पुत्रवन्मेने स च तं पितृवद्वशी । तौ कदाचिद्वनं यातौ कुशेध्मा हरणार्थिनौ ॥ ३१ ॥ हिमाद्रिपादोपवने चेरतुस्तावितस्ततः । तौ तस्मिन्राक्षसं घोरमायान्तं संप्रपश्यतः ||३२|| भयविह्वलसर्वांगा- वसमर्थौ पलायितुम् । निहतौ रक्षसा तेन कृतान्तसमरूपिणा ॥ ३३ ॥
जो तुम्हारे मन में हो वह पूछो । सत्यभामा बोली कि, मैंने पूर्वजन्ममें दान, व्रत अथवा तप क्या किया है ? ||२३|| जिससे में मनुष्य जन्म लेकर इस लोकमें आई और आपकी अर्धांगिनी हो गरुड़की सवारीके योग्य हुई ।। २४|| और आपके साथ इंद्र आदि देवताओंके लोकोंमें गई, इसलिए मैं आपसे पूछती हूँ कि मैंने पूर्वमें क्या सुकृत किया है ? ।। २५ ।। अगले जन्म में मेरा कैसा स्वभाव है और किसकी पुत्री हूँ यह सब कहो । श्रीभगवान् बोले कि, हे प्यारी ! जो तुमने पूर्व जन्ममें किया है उसको मन लगाकर सुनो ।। २६ ।। जो तुमने पुण्य व्रत और कर्म किये हैं और जिसकी तुम कन्या हो सब मैं तुमसे कहता हूँ ||२७|| कृतयुगके अन्तमें मायापुरी अर्थात् देववनमें वेदवेदांगका पढ़नेवाला अत्रिगोत्रमें उत्पन्न ब्राह्मणोंमें उत्तम देवशर्मा नामक ब्राह्मण हुआ ||२८|| अभ्यागतोंका सत्कार तथा अग्निहोत्र करनेवाला और सूर्यके व्रतमें तत्पर सदा सूर्यकी सेवा करता हुआ साक्षात् दूसरेके सूर्यके समान हुआ ।। २९ ।। उसके वृद्ध अवस्थामें गुणवती नाम कन्या उत्पन्न हुई, फिर उस पुत्रहीनने पुत्रीका विवाह अपने चन्द्रनाम शिष्यके साथ कर दिया ।। ३० ।। उसीको पुत्रके समान मानता था और वह भी ब्राह्मणको पिताके समान जानता था। वे दोनों कभी कुश और समिधा लेनेके निमित्त वन में गये ||३१|| हिमालय पर्वतके वनमें जहां-तहां विचरने लगे तब उन दोनोंने आता हुआ एक भयानक राक्षस देखा ।। ३२ ।। भयसे सब अंग व्याकुल हो गये और भागनेकी भी सामर्थ्य न रही तब यमराजके समान रूपवाले उस राक्षसद्वारा वे मारे गये ।। ३३ ।।
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