गणगौर व्रत चैत्र शुक्ला तृतीया को रखा जाता है । यह कुँवारी लड़कियाँ एवं विवाहित महिलाओं का त्यौहार है । भिन्न-भिन्न प्रदेशों की प्रथा एवं भिन्न भिन्न कुल परम्परा के भेद से पूजन के तरीकों में थोडा बहुत अंतर हो सकता है । सुहागान स्त्रियां बहुत प्राचीनकाल से इस व्रत को रखती आ रही हैं। गणगौर राजस्थान एवं मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के निमाड़, मालवा, बुंदेलखण्ड और ब्रज क्षेत्रों में मनाया जाता है ।
मध्याह्न तक उपवास रखकर, पूजन के समय रेणुका की गोर स्थापित करके, उस पर चूडी, महावर, सिन्दूर, नए वस्न, चन्दन, धूप, अक्षत, पुष्प और नैवेद्य आदि अर्पण किया जाता है । उसके बाद कथा सुनकर व्रत रखने वाली स्त्रियां गौर पर चढा हुआ सिन्दूर अपनी मांग में लगाती हैं । इसमें शिव जी और पार्वती जी की पूजा होती है। पूजा के दौरान स्त्रियां दूब से पानी के छींटे देते हुए ’गौर गौर गोमती’ गीत गाती हैं। गणगौर का प्रसाद पुरषों को नहीं दिया जाता है ।
एक बार देवर्षि नारद के साथ भगवान शंकर और पार्वती देवी विश्व पर्यटन के लिए निकले। तीनों एक गाँव में गए। उस दिन चैत्र शुक्ला तृतीया थी । गाँव की सम्पन्न स्त्रियां शिव-पार्वती के आने का समाचार सुनकर बडी प्रसन्न हुई और उन के लिए तरह-तरह के रुचिकर भोजन बनाने लगी। परन्तु गरीब स्त्रियाँ जो जहाँ जैसे बैठी हुई थी, वैसे ही हल्दी -चावल अपनी- अपनी थालियों मे रखकर दौडी और शिव-पार्वती के पास पहुँच गई ।
अपनी सेवा में आई हुई गाँव की ग़रीब और सीधी-सादी महिलाओं को देखकर शिव गदगद हो गए और उनके सरल एवं निष्कपट भाव से अर्पण किये हुए पत्र-पुष्प को स्वीकार करके आनन्द मग्न हो गए । अपने पति को हर्ष से भरा हुआ देखकर, देवी पार्वती का मन भी श्रानन्द से नाच उठा । उन्होंने महिलाओं के ऊपर सुहाग-रस ( सौभाग्य का टीका लगाने की हल्दी) छिडक दी। वे महिलाएँ सौभाग्य दान पाकर अपने अपने घर चली गई ।
इसके बाद सम्पन्न कुलों की स्त्रियां आई । वे सब सोलहों शृंगार से सुसज्जित थीं । उनपर चमकते हुए आभूषणों और सुन्दर वस्नों की बहार थी । चांदी और सोने के थाली में वे अनेक प्रकार के पकवान बनाकर लाई थीं। उन्हें देखकर आशुतोष शंकर भगवान ने पार्वती जी से पूछा - देवि ! तुमने संपूर्ण सुहाग रस तो अपनी दीन पुजारिनों को दे दिया । अब इन्हें क्या दोगी ?
अन्नपूर्णा पार्वती जी ने कहा - इन्हें मैं अपनी उंगली चीरकर रक्त का सुहाग रस दूंगी। जब वे स्त्रियाँ वहाँ आकर पूजन करने लगी तब देवी ने अपनी उंगली चीरकर सब पर उसका रक्त छिड़क दिया और कहा - बढिया वस्त्रों और चमकीले आभूषणों से अपने- अपने पतियों को प्रसन्न करने की अपेक्षा अपने प्रत्येक रक्त बिंदु को स्वामी सेवा में अर्पण करके तुम सौभाग्यशालिनी कहलाओगी । सेवा धर्म का यह अनोखा उपदेश प्राप्त करके सम्पन्न महिलाएं अपने अपने घरों को लौटी ।
इसके उपरान्त देवी ने शिव जी से आज्ञा लेकर उनको तथा महर्षि नारद को वहीं छोडकर कुछ दूर आकर नदी में स्नान किया और बालू का शिवलिंग बनाकर श्रद्धापूर्वक उसका पूजन किया । प्रदक्षिणा करके उन्होंने उस शिवलिंग से यह निवेदन किया कि मेरे दिये हुए वरदान को सत्य करने की शक्ति आप में ही है । इसलिए प्राणेश्वर ! मेरी सेवा से प्रसन्न होकर मेरे वचनों को पूर्ण करने का वरदान प्रदान कीजिए। शंकर जी वहां साक्षात् प्रकट हुए और देवी से बोले - देवि ! जिन स्त्रियों के पतियों का अल्पायु योग है उन्हें मैं यम के पाश से मुक्त कर दूंगा । पार्वती जी वरदान पाकर प्रसन्न हो गई और शिव जी वहाँ से अन्तर्धान होकर फिर उसी स्थान पर आ पहुँचे जहाँ पार्वती जी उन्हें छोड़कर गई थी ।
पूजन के उपरान्त जब देवी पार्वती लौटकर आई तो शिव जी ने उनसे देर से आने का कारण पूछा - प्रिये! देवर्षि नारद यह जानने को उत्सुक हैं कि तुमने इतना समय कहाँ लगाया? पार्वती जी ने उत्तर दिया - देव ! नदी के तीर पर मेरे भाई और भाभी आदि मिल गए थे। उनसे बातचीत करने में विलम्ब हो गया । उन्होंने वडा आग्रह किया कि हम अपने साथ दूध भात आदि लाए हैं, जिसे बहन को अवश्य खाना पडेगा। उनके आग्रह के कारण ही मुझे देर हुई है ।
अपनी पूजा को गुप्त रखने के अभिप्राय से देवी ने बात को इतना घुमा फिराकर कहा था । यह शंकर जी को अच्छा नहीं लगा । इसलिए उन्होने पार्वती जी से कहा- यदि ऐसी बात है तो देवर्षि नारद को भी अपने भाई के यहां का दूध भात खिलाने की व्यवस्था करो तभी कैलाश चलेंगे।
पार्वती जी बडी दुविधा में पड गई क्योकि उन्होंने यह नहीं सोचा था कि शंकर जी उनकी परीक्षा लेने को तैयार हो जाएंगे । उन्होंने मन ही मन शिव जी से प्राथना की कि उन्हें इस संकट से पार कराएं। फिर भी उन्होंने कहा- अवश्य चलिए, वे लोग यहाँ से थोडी ही दूर पर हैं । देवर्षि नारद को साथ में लिये हुए शिव जी पार्वती जी सहित उसी ओर चलने को उठ खड़े हुए।
कुछ दूर जाने पर एक सुन्दर भवन दिखाई पडने लगा। जब ये लोग उस भवन के अन्दर पहुंचे तो देवी के भाई और भाभी ने उनका स्वागत किया । दो दिन तक उनकी वहां जमकर मेहमानदारी हुई। फिर तीनों वहां से निकल गये ।
कुछ दूर जाने पर भगवान शंकर ने कहा - प्रिये! तुम्हारे भाई के घर पर मैं अपनी माला भूल आया हूं । पार्वती जी माला ले आने जाने के लिए तैयार हो गई । परन्तु इसी बीच देवर्षि नारद बोले-- ठहरो अन्नपूर्णे ! इस छोटे से काम को करने का अवसर मुझे ही प्रदान करो। तुम यहाँ भगवान के साथ ठहरो, मैं माला लेकर अभी आता हूं । पार्वती जी घबरा गई, पर करती क्या ? देवर्षि नारद तो उनके गुरु थे । उनका आग्रह कैसे टालती ? शंकर जी ने मुस्कुराकर नारद को आज्ञा प्रदान कर दी। नारद उधर की ओर चल दिए ।
किंतु उस स्थान पर पहुँचकर उन्होंने देखा कि न तो वहाँ कोई मकान था न कोई देव या मनुष्य । चारों ओर घना जंगल ही जंगल, दौडते -भागते हुए जंगली जानवर और अंधेरा ।
नारद यह देखकर सोचने लगे कि में कहाँ आ पहुँचा। मगर आसपास का दृश्य यही था । दैवात उसी समय विजली की चमक के प्रकाश में देवर्षि नारद ने एक पेड पर लटकती हुई माला देखा। उसे लेकर जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए वे शंकर जी के पास पहुंचे और उनसे जंगल का वर्णन करने लगे । शिव जी बोले - देवर्षि ! आपने जो कुछ अब तक देखा, यह सब आपकी शिष्या महारानी पार्वती की अद्भुतत माया और चमत्कार था। वह अपने पार्थिव पूजन के भेद को आपसे गुप्त रखना चाहती थी, इसीलिए नदी से देर से लौटकर आने के कारण को दूसरे ढंग से प्रकट किया ।
देवर्षि बोले - महामाये ! पूजन गोपनीय ही होता है, परन्तु आपकी भावना और चमत्कारी शक्ति को देखकर मुझे अपार हर्ष है। आप विश्व की नारियों में पातिव्रता धर्म का प्रतीक हैं। मेरा आशीर्वाद है कि जो पत्नियां इस दिन गुप्त रूप से पति का पूजन करके उनकी मंगल कामना करेंगी उन्हें भगवान् शंकर के प्रसाद से दीर्घायु पति के सुख का लाभ होगा ।
शिव और पार्वती कैलाश की ओर चले गए ।
गौर गौर गोमती ईसर पूजे पार्वती
पार्वती का आला-गीला , गौर का सोना का टीका
टीका दे , टमका दे , बाला रानी बरत करयो
करता करता आस आयो वास आयो
खेरे खांडे लाडू आयो , लाडू ले बीरा ने दियो
बीरो ले मने पाल दी , पाल को मै बरत करयो
सन मन सोला , सात कचौला , ईशर गौरा दोन्यू जोड़ा
जोड़ ज्वारा , गेंहू ग्यारा , राण्या पूजे राज ने , म्हे पूजा सुहाग ने
राण्या को राज बढ़तो जाए , म्हाको सुहाग बढ़तो जाय ,
कीड़ी- कीड़ी , कीड़ी ले , कीड़ी थारी जात है , जात है गुजरात है ,
गुजरात्यां को पाणी , दे दे थाम्बा ताणी
ताणी में सिंघोड़ा , बाड़ी में भिजोड़ा
म्हारो भाई एम्ल्यो खेमल्यो , सेमल्यो सिंघाड़ा ल्यो
लाडू ल्यो , पेड़ा ल्यो सेव ल्यो सिघाड़ा ल्यो
झर झरती जलेबी ल्यो , हर-हरी दूब ल्यो गणगौर पूज ल्यो
इस तरह सोलह बार बोल कर आखिरी में बोलें : एक-लो , दो-लो ……..सोलह-लो।
नैमिषारण्य गोमती नदी के बाएं तट पर है ।
सूर्य देव के श्राप से निर्धन होकर शनि देव अपनी मां छाया देवी के साथ रहते थे। सूर्य देव उनसे मिलने आये। वह मकर संक्रांति का दिन था। शनि देव के पास तिल और गुड के सिवा और कुछ नहीं था। उन्होंने तिल और गुड समर्पित करके सूर्य देव को प्रसन्न किया। इसलिए हम भी प्रसाद के रूप में उस दिन तिल और गुड खाते हैं।
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