राधा को मिली कृष्ण की पहली झलक

राधा को मिली कृष्ण की पहली झलक

एक दिन श्री राधा की दो मुख्य सखियाँ ललिता और विशाखा वृषभानु के घर पहुँचीं और श्री राधा से मिलीं।

सखियों ने कहा, 'हे राधा! जिसका तुम निरंतर स्मरण और गुणगान करती हो, वह प्रतिदिन अपने ग्वाल-बालों के साथ वृषभानुपुर में आता है। राधा, तुम उसे प्रातःकाल अवश्य देखना, जब वह गोचारण के लिए निकलता है। वह अत्यन्त सुन्दर है।'

राधा ने उत्तर दिया, 'पहले उसकी मनोहर चित्र बनाकर मुझे दिखाओ, फिर मैं उसे देखूँगी।'

तब दोनों सखियों ने तुरन्त कृष्ण की एक सुन्दर चित्र बनाया, जिसमें उनके युवा रूप की मधुरता थी। उन्होंने वह चित्र राधा को दे दिया। इस चित्र को देखकर राधा का हृदय आनन्द से भर गया और राधा को कृष्ण के दर्शन की तीव्र लालसा हुई। हाथ में लिए चित्र को देखते-देखते वह आनन्द में खो गई। स्वप्न में उसने देखा कि श्यामसुन्दर, पीले वस्त्र पहने हुए, यमुना के किनारे भाण्डीरावन वन के एक भाग में उसके निकट नृत्य कर रहे हैं।

उस समय राधा जाग उठीं और कृष्ण से वियोग अनुभव करते हुए उसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को कृष्ण के समक्ष तुच्छ समझा। इसी बीच दूसरी ओर कृष्ण वृषभानु के गांव की संकरी गली में आ गए। राधा की एक सखी खिड़की पर आई और राधा को कृष्ण के दर्शन कराई। कृष्ण को देखते ही राधा बेहोश हो गईं। कृष्ण, जिन्होंने अपनी दिव्य लीला के लिए मानव रूप धारण किया था, उन्होंने वृषभानु की सुन्दर और आकर्षक पुत्री को देखा और उसके साथ रहने की तीव्र इच्छा का अनुभव किया। इसके बाद वे अपने घर लौट आए। राधा को कृष्ण के वियोग में इतना व्याकुल और काम की अग्नि में भस्म होते देख राधा की सखियों में श्रेष्ठ ललिता ने उनसे प्रेमपूर्वक कहा।

'राधा! तुम इतनी व्याकुल क्यों हो? क्यों बेहोश हो गई? यदि तुम सचमुच भगवान हरि को प्राप्त करना चाहती हो, तो उनके प्रति अपना प्रेम दृढ़ करो। तीनों लोकों के समस्त सुखों पर उनका ही अधिकार है। वे ही दु:ख की अग्नि को बुझा सकते हैं।'

ललिता के कोमल वचन सुनकर व्रज की रानी श्री राधा ने अपनी आँखें खोलीं और भावपूर्ण वाणी में अपनी प्रिय सखी से बोलीं।

'सखी! यदि मैं श्यामसुन्दर के चरणकमलों को प्राप्त नहीं करूँगी, तो जीवित नहीं रहूँगी - यह मेरा संकल्प है।'

श्री राधा से यह सुनकर ललिता चिन्ता से व्याकुल होकर यमुना के तट पर कृष्ण के पास गई। उसने देखा कि कृष्ण कदम्ब वृक्ष के नीचे अकेले बैठे हैं। चारों ओर मधुकरियों की भिनभिनाहट हो रही है और उनके शरीर पर माधवी की लताएँ लिपटी हुई हैं। वहाँ ललिता ने श्री हरि से बातें कीं।

ललिता ने कहा, 'हे श्यामसुन्दर! जिस क्षण से श्री राधा ने आपके मनोहर रूप को देखा है, उसी क्षण से वे मौन तृष्णा में डूब गई हैं, बोल नहीं पातीं। आभूषण उन्हें जलती हुई ज्वाला के समान लगते हैं, सुन्दर वस्त्र उन्हें गर्म रेत के समान कष्टदायक लगते हैं। हर सुगंध पसंद नहीं आ रहा है और उनका भव्य घर, जो सेवकों से भरा हुआ है, एकांत वन के समान लगता है। मेरी सखी को तुम्हारे वियोग के कारण उद्यान कंटीले झाड़ और चन्द्रमा की रोशनी विष के समान दिखाई दे रही है। हे प्रियतम! उसे शीघ्र ही अपना दर्शन प्रदान करो, क्योंकि केवल तुम्हारी उपस्थिति ही उसके दुःखों का निवारण कर सकती है। तुम सबके साक्षी हो; इस पृथ्वी पर तुमसे क्या छिपा हो सकता है? तुम ही इस जगत की रचना, पालन और संहार करते हो। यद्यपि तुम सबके प्रति समान भाव रखते हो, तथापि तुम्हारा अपने भक्तों के प्रति विशेष स्नेह है।'

ललिता के इन कोमल वचनों को सुनकर व्रज के दिव्य स्वरूप भगवान कृष्ण ने गर्जना के समान गम्भीर स्वर में कहा।

भगवान ने कहा, 'हे कृपालु! सच्ची भक्ति पूर्ण रूप से मुझ परमात्मा की ओर प्रवाहित होनी चाहिए। प्रेम ही एकमात्र ऐसा साधन है, जिसके द्वारा कोई मुझे वास्तव में प्राप्त कर सकता है। भाण्डीरावन में श्री राधा के हृदय में जो कामना उत्पन्न हुई थी, वह उसी रूप में पूरी होगी। बुद्धिमान लोग उस प्रेम को अपनाते हैं, जो कारण और शर्त से रहित है, जो प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जो मुझमें और श्री राधा में दूध और उसके सार के समान कोई भेद नहीं देखते, उनके हृदय में निष्काम भक्ति के चिह्न हैं और वे मेरे परमधाम गोलोक को प्राप्त होते हैं। जो मूर्खतापूर्वक मुझमें और श्री राधा में भेद मानते हैं, वे सूर्य और चन्द्रमा के रहते हुए काल सूत्र रूपी नरक में कष्ट भोगते हैं।'

कृष्ण के वचन सुनकर ललिता ने प्रणाम किया और श्री राधा के पास लौट आईं। वह मधुर मुस्कान लिए हुए एकांत में उनके पास गईं।

ललिता ने कहा, 'सखी! जैसे तुम श्री कृष्ण को चाहती हो, वैसे ही वे भी तुम्हें चाहते हैं। तुम दोनों की शक्ति एक और अविभाज्य है। लोग अज्ञानतावश उसे दो समझते हैं; तुम केवल श्री कृष्ण के लिए हो। निष्काम कर्म करो, जिससे परम भक्ति से तुम्हारी इच्छाएं पूरी हो सकें।'

अपनी सखी ललिता के ये वचन सुनकर रास की रानी राधा अपने सखा और सभी धर्मों के ज्ञाता चन्द्रानन से बोलीं।

'प्रिय, मुझे कोई ऐसी पूजा विधि बताओ जिससे श्री कृष्ण को आनंद प्राप्त हो। यह पूजा सौभाग्य, अपार पुण्य और मनोकामना पूर्ण करने वाली हो। मुझे कोई व्रत या पूजा बताओ जिसे मैं कर सकूँ।'

सीख -

कृष्ण की छवि और बाद में उनके वास्तविक रूप को देखने पर राधा की उनके प्रति गहरी लालसा इस बात पर प्रकाश डालती है कि कैसे बिना शर्त वाला प्रेम किसी व्यक्ति को अपने में समाहित कर सकता है और उसे बदल सकता है। राधा की भक्ति इतनी तीव्र है कि सांसारिक सुख और आराम उसके लिए महत्वहीन हो जाते हैं। यह सिखाता है कि सच्ची भक्ति भौतिक आसक्तियों से परे होती है और केवल दिव्य स्वरूप पर केंद्रित होती है, जिससे आध्यात्मिक जागृति होती है।

यह कहानी इस बात पर जोर देती है कि राधा और कृष्ण मूल रूप से एक और अविभाज्य हैं, ठीक वैसे ही जैसे दूध और उसका सार। कृष्ण स्वयं कहते हैं कि इस एकता को पहचानना बिना शर्त वाली भक्ति का संकेत है। यह सबक इस विचार को रेखांकित करता है कि ईश्वर भक्त के भीतर रहता है, और इस एकता को अनुभव करना आध्यात्मिक ज्ञान और परम निवास, गोलोक को प्राप्त करने की कुंजी है।

ललिता राधा को अपनी गहरी इच्छाओं को पूरा करने के लिए निस्वार्थ कर्म और सर्वोच्च भक्ति करने की सलाह देती है। कृष्ण को खुशी देने के तरीकों की तलाश करने की राधा की इच्छा, ईश्वरीय इच्छा के साथ अपने कार्यों को संरेखित करने के महत्व को दर्शाती है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि निःस्वार्थता, समर्पण और समर्पित आध्यात्मिक अभ्यास, ईश्वर से मिलन और आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक मार्ग हैं।

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