पूजा ईश्वर से जुड़ने और उनकी उपस्थिति का अनुभव करने के लिए की जाती है। यह आत्मा और भगवान के बीच की कल्पित बाधा को दूर करती है, जिससे भगवान का प्रकाश अबाधित रूप से चमकता है। पूजा के माध्यम से हम अपने जीवन को भगवान की इच्छा के अनुरूप ढालते हैं, जिससे हमारा शरीर और कर्म ईश्वर की दिव्य उद्देश्य के उपकरण बन जाते हैं। यह अभ्यास हमें भगवान की लीला के आनंद और सुख का अनुभव करने में मदद करता है। पूजा में लीन होकर, हम संसार को दिव्य क्षेत्र के रूप में और सभी जीवों को भगवान की अभिव्यक्ति के रूप में देख सकते हैं। इससे एक गहरी एकता और आनंद की भावना पैदा होती है, जिससे हम दिव्य आनंद में डूबकर उसके साथ एक हो जाते हैं।
भक्ति-योग में लक्ष्य भगवान श्रीकृष्ण के साथ मिलन है, उनमें विलय है। कोई अन्य देवता नहीं, यहां तक कि भगवान के अन्य अवतार भी नहीं क्योंकि केवल कृष्ण ही सभी प्रकार से पूर्ण हैं।
श्रीमद्भागवत का चौथा श्लोक - नैमिशेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत। जहां भागवत की कथा हो रही है वह एक दिव्य स्थान है, नैमिषारण्य - नीमसार जो लखनऊ के पास है। इस नाम के दो पाठांतर हैं - नैमि�....
श्रीमद्भागवत का चौथा श्लोक -
नैमिशेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः।
सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत।
जहां भागवत की कथा हो रही है वह एक दिव्य स्थान है, नैमिषारण्य - नीमसार जो लखनऊ के पास है।
इस नाम के दो पाठांतर हैं - नैमिशारण्य और नैमिषारण्य।
पहले नैमिशारण्य को देखते हैं।
कलयुग शुरू होनेवाला था।
तो ऋषि जन ब्रह्मा जी के पास गये।
हमें एक ऐसा स्थान दिखाइए जहां कलि का प्रभाव नहीं होगा।
और जहां हमारी तपस्या भी सफल हो जाएगी।
ब्रह्मा जी ने एक चक्र छोड दिया और कहा जहां इस चक्र की नेमी रुकेगी वही उत्तम स्थान रहेगा।
नेमिः शीर्यत इति नेमिशम्।
चक्र क्यों रुकेगा वहां?
पुण्याधिक्य के कारण।
इससे अधिक महत्ता और किसी स्थान में नहीं है।
और यह तपस्या के लिए भी अनुकूल है।
वह पहले से पुण्य स्थान होगा।
इस से पाठांतर नैमिषारण्य का अर्थ समझ में आता है।
अनिमिष भगवान विष्णु का नाम है।
क्यों कि वे कभी अपनी आंखें बन्द नहीं करते।
सर्वदा जागरूक रहते हैं जगत के प्रति।
अनिमिष ने ही इस स्थान को पुण्य स्थान बनाया।
कैसे?
निमिषमात्रेण दानवबलं निहितं।
पल भर में उन्होंने यहां दानवों के संपूर्ण बल का विनाश कर दिया।
तो यह अनिमिष का क्षेत्र बन गया।
अनिमिष क्षेत्र - नैमिषारण्य।
कुरुक्षेत्र में भी यही बात है।
महाभारत युद्ध से पहले ही परशुराम जी ने उसे पुण्य स्थान बना दिया था।
ऋषियों ने नैमिषारण्य में एक याग करना शुरू किया, एक सत्र।
सत्र उसे कहते हैं जिसमें ऋत्विक लोग ही यजमान हैं।
पुरोहित जन अपने लिए ही जब याग करते हैं तो उसे सत्र कहते हैं।
हजार सालों का यज्ञ।
इतना लंबा क्यों?
स्वर्गाय लोकाय।
स्वर्गाय विष्णु का नाम है।
जैसे उरुगाय वैसे स्वर्गाय।
उनको विष्णु लोक पाना था।
भगवान जिनका यशोगान स्वर्ग में भी होता है।
उस भगवान का लोक वैकुण्ठ।
जहां आनन्द ही आनन्द है, परमानन्द।
पर हुआ क्या?
इस सत्र के अंत में भगवान स्वयं प्रकट हुए।
भागवत के रूप में।
जिसको मात्र सुनने से परमानंद की प्राप्ति होती है।
ऋषियों को पता था कि हमें स्वर्ग से भी श्रेष्ठ कुछ पाना है।
स्वर्ग की प्राप्ति एक अश्वमेध यज्ञ करने से भी होती है।
तो इस से कई गुना करते हैं।
यज्ञ करते ही रहेंगे हजार सालों तक।
कुछ और बातें -
भागवत का कथन और श्रवण, इसके तीन स्तर हैं।
आपको कितना समझ में आता है यह इसका स्तर है।
आपने भागवत से क्या अनुभूति पायी यह इसका स्तर है।
इसमें पहला -सूत और ऋषि जन।
दूसरा - नारद और व्यास।
तीसरा - शुकदेव और परीक्षित।
इसमें सबसे प्रारंभिक स्तर की यहां बात हो रही है।
भागवत का व्याख्यान भी सात स्तरों में हो सकता है।
शास्त्र, स्कन्ध, प्रकरण, अध्य्याय, वाक्य, पद और अक्षर।
भागवत का एक अनोखापन है।
इन सारे स्तरों में एक ही अर्थ निकलता है।
भागवत के एक एक अक्षर में संपूर्ण भागवत छिपा हुआ है।
एक और बात - यज्ञो वै विष्णुः।
यज्ञ स्वयं भगवान विष्णु है।
ऋषियों ने यज्ञ किया इसका अर्थ है कि उस समय उनके शरीर में भगवान का आवेश था।
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