महाभारत और पुराणों का आख्यान होने के कारण ?
ब्रह्मा जी द्वारा ऋषि जन कलि से बचने के लिए नैमिषारण्य भेजे गये ।
इसके कारण ?
ये तो द्वापर युग की बात हैं ।
Click below to watch video - नैमिषारण्य की 84 कोसी परिक्रमा
सत्ययुग में एक प्रसिद्ध राजा थे, सुप्रतीक ।
उनकी राजधानी वाराणसी में थी ।
सुप्रतीक की दो रानियां थी, पर संतान नहीं थी ।
उन्होंने चित्रकूट पर्वत पर जाकर दुर्वासा महर्षि की बहुत काल तक सेवा की ।
मुनि प्रसन्न होकर राजा को आशीर्वाद देने तैयार हो गये ।
ठीक उसी समय अपनी बड़ी सेना के साथ देवेंद्र भी वहां आ पहुंचे ।
देवेंद्र चुपचाप खड़े हो गये, पर महर्षि के प्रति आदर सम्मान नहीं दिखाये ।
गुस्से में आकर दुर्वासा जी ने इंद्र को शाप दे दिया -
तुम्हारी इस घमंड के कारण तुम्हें अपना राज्य से च्युत होकर मनुष्य लोक में जाकर रहना पड़ेगा ।
और महर्षि ने राजा से कहा -
आपको इंद्र के समान एक बलवान महान पराक्रमी पुत्र होगा पर वह अति क्रूर कार्य करेगा ।
वह दुर्जय नाम से प्रसिद्ध होगा ।
उस बच्चे के जातकर्म संस्कार के समय दुर्वासा जी स्वयं आये और अपने तप शक्ति से उसके स्वभाव को सौम्य बना दिये ।
दुर्जय ने वेदों और शास्त्रों का अध्ययन किया ।
अपने पिताजी से राज्याधिकार प्राप्त होने पर दुर्जय अपने साम्राज्य को बढ़ाने में लग गया ।
जैसे दुर्वासा जी ने कहा दुर्जय ने क्रूरता के हर रूप को अपनाया ।
संपूर्ण भारतवर्ष को जीतने के बाद दुर्जय ने मध्य एशिया में रहने वाले गंधर्व, किन्नर इत्यादियों को पराजित करके मेरु पर्वत के उत्तर की ओर बढा जहां देवेंद्र का साम्राज्य था - स्वर्ग लोक ।
आजकल यह स्थान साइबेरिया नाम से जाना जाता है ।
यह धरती पर स्वर्ग लोक के प्रतिबिंब जैसा है ।
इसका प्रमाण महाभारत शान्ति पर्व में है ।
भारद्वाज महर्षि भृगु महर्षि से पूछते हैं -
अस्माल्लोकात्परो लोकः श्रूयते नोपलभ्यते।
तमहं ज्ञातुमिच्छामि तद्भवान् वक्तुमर्हति ॥
परलोक कहां है ?
भृगु महर्षि जवाब देते हैं -
उत्तरे हिमवत्पार्श्वे पुण्ये सर्वगुणान्विते ।
पुण्यः क्षेम्यश्च यो देशः स परो लोक उच्यते ॥
स स्वर्गसदृशो देशः तत्र युक्ताः शुभा गुणाः ।
काले मृत्युः प्रभवति स्पृशन्ति व्याधयो न च ॥
हिमालय के उत्तर में है स्वर्ग सदृश परलोक ।
वहां न अकाल मृत्यु है, न बीमारियां ।
देवता लोग दुर्जय के सामने टिक नहीं पाये ।
युद्ध में पराजित होकर भारतवर्ष में आकर रहने लगे ।
दुर्जय असुरों के साथ भी सख्य शुरू किया ।
दो असुरों को - विद्युत और सुविद्युत - लोकपालों के स्थान पर नियुक्त किया ।
दो दानव थे - हेतृ और प्रहेतृ ।
उन्होंने बड़ी सेना के साथ एक बार स्वर्ग लोक पर आक्रमण करके देवताओं को वहां से निष्कासित कर दिया था ।
देवता लोग मदद मांग कर श्रीमन्नारायण के पास गये ।
भगवान ने योग शक्ति से अपने ही करोड़ों रूप बना लिये और उन असुरों को पराजित किये ।
दुर्जय ने हेतृ और प्रहेतृ की बेटियों के साथ विवाह किया ।
एक बार दुर्जय जंगल में अपनी पांच अक्षौहिणी सेना के साथ शिकार कर रहा था ।
एक अक्षौहिणी में १,०९,३५० पैदल सैनिक, ६५,६१० घुड़सवार, २१,८७० हाथी और २१,८७० रथ होते हैं ।
ऐसी पांच अक्षौहिणी थी दुर्जय के साथ ।
कुरुक्षेत्र युद्ध में कुल मिलाकर १८ अक्षौहिणी सेनाओं ने भाग लिया था ।
शिकार करते करते वह महान तपस्वी गौरमुख का आश्रम पहुंचा ।
मुनि ने उनका स्वागत सत्कार किया और कहा कि मैं आप लोगों की भोजन के लिए व्यवस्था करता हूं ।
कह तो दिये, बाद में मुनि सोच में पड़ गये - इतने लोगों को कैसे खिलाएं ?
मुनि ने भगवान श्री हरि से प्रार्थना की - मैं जिस वस्तु को भी देखूं जिसे भी स्पर्श करूं वह स्वादिष्ठ भोजन बन जायें ।
भगवान ने गौरमुख को दर्शन दिया और उन्हें चिंतन मात्र से हर वस्तु प्रकट करने वाला चिन्तामणि रत्न भी सौंप दिया ।
मणि की शक्ति से दुर्जय और उसकी पांच अक्षौहिणी सेना के लिए भोजन सुव्यवस्थित हो गया ।
दुर्जय विस्मित हो गया ।
उसे पता चला कि मुनि के पास चिन्तामणि है ।
वहां से निकलने से पहले उसने अपने मंत्री को मुनि के पास भेजा ।
मंत्री ने मुनि से कहा -
रत्न राजाओं को ही शोभा देते हैं, आप जैसे तापसों को नहीं ।
इसे राजा को दे दीजिए ।
वह रत्न भगवान का आशीर्वाद था, उसे कैसे दे दें किसी को ?
मुनि ने मना किया ।
राजा ने मुनि से चिन्तामणि छीनने का आदेश दिया ।
दुर्जय की सेना ने आश्रम के ऊपर आक्रमण किया ।
चिंतामणि से भी असंख्य बलवान सैनिक निकल आये और भयंकर लड़ाई शुरू हो गयी जो चलती रही चलती रही ।
गौरमुख ने भगवान का स्मरण किया ।
भगवान प्रकट हुए और बोले - कहो ।
क्या चाहिए तुम्हें ?
गौरमुख ने कहा - हे भगवान । आप इस पापी दुर्जय का उसकी सेना के साथ विनाश कर दीजिए ।
भगवान ने सुदर्शन चक्र से दुर्जय और उसकी सेना को जलाकर राख कर दिया ।
भगवान ने कहा - देखो मैं ने एक निमिष में ( पलक मारने की अवधि ) सारे दानवों को भस्म कर दिया ।
इसलिये यह स्थान अब के बाद नैमिषारण्य नाम से जाना जाएगा ।
इस प्रकार धर्म की जीत और अधर्म का हार होने का कारण नैमिषारण्य एक महान तीर्थ बन गया ।
रावण के दुष्कर्म , विशेष रूप से सीता के अपहरण के प्रति विभीषण के विरोध और धर्म के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें रावण से अलग होकर राम के साथ मित्रता करने के लिए प्रेरित किया। उनका दलबदल नैतिक साहस का कार्य है, जो दिखाता है कि कभी-कभी व्यक्तिगत लागत की परवाह किए बिना गलत काम के खिलाफ खड़ा होना जरूरी है। यह आपको अपने जीवन में नैतिक दुविधाओं का सामना करने पर कठोर निर्णय लेने में मदद करेगा।
सीताराम कहने पर राम में चार मात्रा और सीता में पांच मात्रा होती है। इसके कारण राम नाम में लघुता आ जाती है। सियाराम कहने पर दोनों में तुल्य मात्रा ही होगी। यह ज्यादा उचित है।
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