स्मितन्यक्कृतेन्दुप्रभाकुन्दपुष्पं
सिताभ्रागरुप्रष्ठगन्धानुलिप्तम् ।
श्रिताशेषलोकेष्टदानामरद्रुं
सदा षण्मुखं भावये हृत्सरोजे ॥

शरीरेन्द्रियादावहम्भावजातान्
षडूर्मीर्विकारांश्च शत्रून्निहन्तुम् ।
नतानां दधे यस्तमास्याब्जषट्कं
सदा षण्मुखं भावये हृत्सरोजे ॥

अपर्णाख्यवल्लीसमाश्लेषयोगात्
पुरा स्थाणुतो योऽजनिष्टामरार्थम् ।
विशाखं नगे वल्लिकाऽऽलिङ्गितं तं
सदा षण्मुखं भावये हृत्सरोजे ॥

गुकारेण वाच्यं तमो बाह्यमन्तः
स्वदेहाभया ज्ञानदानेन हन्ति ।
य एनं गुहं वेदशीर्षैकमेयं
सदा षण्मुखं भावये हृत्सरोजे ॥

यतः कर्ममार्गो भुवि ख्यापितस्तं
स्वनृत्ये निमित्तस्य हेतुं विदित्वा ।
वहत्यादरान्मेघनादानुलासी
सदा षण्मुखं भावये हृत्सरोजे ॥

कृपावारिराशिर्नृणामास्तिकत्वं
दृढं कर्तुमद्यापि यः कुक्कुटादीन् ।
भृशं पाचितान् जीवयन्राजते तं
सदा षण्मुखं भावये हृत्सरोजे ॥

भुजङ्गप्रयातेन वृत्तेन क्लृप्तां
स्तुतिं षण्मुखस्यादराद्ये पठन्ति ।
सुपुत्रायुरारोग्यसम्पद्विशिष्टान्
करोत्येव तान् षण्मुखः सद्विदग्र्यान् ॥

 

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

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