श्रियाश्लिष्टो विष्णुः स्थिरचरगुरुर्वेदविषयो
धियां साक्षी शुद्धो हरिरसुरहन्ताब्जनयनः।
गदी शङ्खी चक्री विमलवनमाली स्थिररुचिः
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः।
यतः सर्वं जातं वियदनिलमुख्यं जगदिदं
स्थितौ निःशेषं योऽवति निजसुखांशेन मधुहा।
लये सर्वं स्वस्मिन् हरति कलया यस्तु स विभुः
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः।
असूनायाम्यादौ यमनियममुख्यैः सुकरणै-
र्निरुद्ध्येदं चित्तं हृदि विमलमानीय सकलम्।
यमीड्यं पश्यन्ति प्रवरमतयो मायिनमसौ
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः।
पृथिव्यां तिष्ठन् यो यमयति महीं वेद न धरा
यमित्यादौ वेदो वदति जगतामीशममलम्।
नियन्तारं ध्येयं मुनिसुरनृणां मोक्षदमसौ
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः।
महेन्द्रादिर्देवो जयति दितिजान् यस्य बलतो
न कस्य स्वातन्त्र्यं क्वचिदपि कृतौ यत्कृतिमृते।
बलारातेर्गर्वं परिहरति योऽसौ विजयिनः
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः।
विना यस्य ध्यानं व्रजति पशुतां सूकरमुखा
विना यस्य ज्ञानं जनिमृतिभयं याति जनता।
विना यस्य स्मृत्या कृमिशतजनिं याति स विभुः
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः।
नरातङ्कोट्टङ्कः शरणशरणो भ्रान्तिहरणो
घनश्यामो वामो व्रजशिशुवयस्योऽर्जुनसखः।
स्वयंभूर्भूतानां जनक उचिताचारसुखदः
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः।
यदा धर्मग्लानिर्भवति जगतां क्षोभकरणी
तदा लोकस्वामी प्रकटितविभुः सेतुधृदजः।
सतां धाता स्वच्छो निगमगणगीतो व्रजपतिः
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषयः।

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