अस्य श्रीबृहस्पतिकवचस्तोत्रमन्त्रस्य। ईश्वर ऋषिः।
अनुष्टुप् छन्दः। गुरुर्देवता। गं बीजम्। श्रीशक्तिः।
क्लीं कीलकम्। गुरुप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः।
अभीष्टफलदं देवं सर्वज्ञं सुरपूजितम्।
अक्षमालाधरं शान्तं प्रणमामि बृहस्पतिम्।
बृहस्पतिः शिरः पातु ललाटं पातु मे गुरुः।
कर्णौ सुरगुरुः पातु नेत्रे मेऽभीष्टदायकः।
जिह्वां पातु सुराचार्यो नासां मे वेदपारगः।
मुखं मे पातु सर्वज्ञो कण्ठं मे देवतागुरुः।
भुजावाङ्गिरसः पातु करौ पातु शुभप्रदः।
स्तनौ मे पातु वागीशः कुक्षिं मे शुभलक्षणः।
नाभिं देवगुरुः पातु मध्यं पातु सुखप्रदः।
कटिं पातु जगद्वन्द्य ऊरू मे पातु वाक्पतिः।
जानुजङ्घे सुराचार्यो पादौ विश्वात्मकस्तथा।
अन्यानि यानि चाङ्गानि रक्षेन्मे सर्वतो गुरुः।
इत्येतत्कवचं दिव्यं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।
सर्वान्कामानवाप्नोति सर्वत्र विजयी भवेत्।
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