रूपं यत्तत्प्राहुरव्यक्तमाद्यं ब्रह्मज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम्।
सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं स त्वं साक्षाद्विष्णुरध्यात्मदीपः।
नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु।
व्यक्तेऽव्यक्तं कालवेगेन याते भवानेकः शिष्यते शेषसंज्ञः।
योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धोश्चेष्टामाहुश्चेष्टते येन विश्वम्।
निमेषादिर्वत्सरान्तो महीयांस्तं त्वीशानं क्षेमधाम प्रपद्ये।
मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायन्सर्वांल्लोकान्निर्वृतिं नाध्यगच्छत्।
त्वत्पादाब्जं पाप्य यदृच्छयाद्य स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति।

 

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

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