महान्तं वरेण्यं जगन्मङ्गलं तं
सुधारम्यगात्रं हरं नीलकण्ठम्।
सदा गीतसर्वेश्वरं चारुनेत्रं
भजे शङ्करं साधुचित्ते वसन्तम्।
भुजङ्गं दधानं गले पञ्चवक्त्रं
जटास्वर्नदी- युक्तमापत्सु नाथम्।
अबन्धोः सुबन्धुं कृपाक्लिन्नदृष्टिं
भजे शङ्करं साधुचित्ते वसन्तम्।
विभुं सर्वविख्यात- माचारवन्तं
प्रभुं कामभस्मीकरं विश्वरूपम्।
पवित्रं स्वयंभूत- मादित्यतुल्यं
भजे शङ्करं साधुचित्ते वसन्तम्।
स्वयं श्रेष्ठमव्यक्त- माकाशशून्यं
कपालस्रजं तं धनुर्बाणहस्तम्।
प्रशस्तस्वभावं प्रमारूपमाद्यं
भजे शङ्करं साधुचित्ते वसन्तम्।
जयानन्ददं पञ्चधामोक्षदानं
शरच्चन्द्रचूडं जटाजूटमुग्रम्।
लसच्चन्दना- लेपिताङ्घ्रिद्वयं तं
भजे शङ्करं साधुचित्ते वसन्तम्।
जगद्व्यापिनं पापजीमूतवज्रं
भरं नन्दिपूज्यं वृषारूढमेकम्।
परं सर्वदेशस्थ- मात्मस्वरूपं
भजे शङ्करं साधुचित्ते वसन्तम्।

 

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

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