प्रत्यग्वस्तुनि निस्तरङ्गसहजा- नन्दावबोधाम्बुधौ
विप्रोऽयं श्वपचोऽयमित्यपि महान्कोऽयं विभेदभ्रमः।
किं गङ्गाम्बुनि बिम्बितेऽम्बरमणौ चाण्डालवीथीपयः
पूरे वाऽन्तरमस्ति काञ्चनघटीमृत्कुम्भ- योर्वाऽम्बरे।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते
या ब्रह्मादिपिपीलिकान्ततनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी।
सैवाहं न च दृश्यवस्त्विति दृढप्रज्ञाऽपि यस्यास्ति चे-
च्चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम।
ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं
सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाऽशेषं मया कल्पितम्।
इत्थं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले
चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम।
शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरो-
र्नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याजशान्तात्मना।
भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके
प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम।
या तिर्यङ्नरदेवताभि- रहमित्यन्तःस्फुटा गृह्यते
यद्भासा हृदयाक्षदेहविषया भान्ति स्वतोऽचेतनाः ।
तां भास्यैः पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावय-
न्योगी निर्वृतमानसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम।
यत्सौख्याम्बुधिलेशलेशत इमे शक्रादयो निर्वृता
यच्चित्ते नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा मुनिर्निर्वृतः।
यस्मिन्नित्यसुखाम्बुधौ गलितधीर्ब्रह्मैव न ब्रह्मविद्
यः कश्चित्स सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम।
दासस्तेऽहं देहदृष्ट्याऽस्मि शंभो
जातस्तेंऽशो जीवदृष्ट्या त्रिदृष्टे।
सर्वस्याऽऽत्मन्नात्मदृष्ट्या त्वमेवे-
त्येवं मे धीर्निश्चिता सर्वशास्त्रैः।

 

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

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