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वेदधारा से जब से में जुड़ा हूं मुझे अपने जीवन में बहुत कुछ सीखने को मिला वेदधारा के विचारों के माध्यम से हिंदू समाज के सभी लोगों को प्रेरणा लेनी चाहिए। -नवेंदु चंद्र पनेरु

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नियम से आपका चैनल देखता हूं पूजन मंत्र की जानकारी मिलती है मन प्रसन्न हो जाता है आपका आभार धन्यवाद। मुझे अपने साथ जोड़ने का -राजेन्द्र पाण्डेय

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पूर्वजों का बही खाता

बही का अर्थ है 'खाता पुस्तक', जो तीर्थ पुरोहितों (पंडों) द्वारा रखी जाती है। हर तीर्थ स्थान में हर पंडा परिवार का अधिकार होता है कि वह उन तीर्थयात्रियों की सेवा करे जिनके पूर्वज उस स्थान से जुड़े हुए थे, भले ही तीर्थयात्री अब उस स्थान पर न रहते हों। उदाहरण के लिए, राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से संबंधित परिवारों को हमेशा मारवाड़ी पंडा ही सेवा देंगे, चाहे वह पंडा परिवार खुद मारवाड़ में न रहता हो।

तीर्थयात्री हर यात्रा पर अपने पंडा की बही में तारीख, नाम और यात्रा का कारण दर्ज कराते हैं। यह विवरण मोटे कागज पर लिखा जाता है, जिसकी चौड़ाई एक फुट और लंबाई तीन फुट होती है। हर पृष्ठ के किनारे छेद होते हैं, जिनसे इसे अन्य पृष्ठों के साथ जोड़कर रखा जाता है। पंडा इन बही खातों को विशेष गांव या परिवार के लिए संभालते हैं। उपयोग में न होने पर इन्हें गोल लपेटकर रखा जाता है।

यह बही न केवल तीर्थयात्राओं का रिकॉर्ड है, बल्कि पंडा और तीर्थयात्री परिवार के बीच पारंपरिक संबंध का प्रमाण भी है। यह प्रमाण तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब तीर्थयात्री और पंडा के बीच लंबे समय तक संपर्क न हो। बही पंडा के अधिकार का एकमात्र प्रमाण होती है। इसे पंडे बड़ी सावधानी से संभालते हैं, क्योंकि इसकी एक प्रति से कोई और भी तीर्थयात्रियों पर दावा कर सकता है।

बही की महत्वपूर्ण भूमिका के कारण इसकी बड़ी आर्थिक कीमत होती है। इसे ऋण के लिए गिरवी रखा जा सकता है या बेचा जा सकता है। हालांकि, बही बेचना दुर्लभ है क्योंकि यह पंडा के जीविका और पारिवारिक विरासत का प्रमुख स्रोत है।

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राजा दिलीप की वंशावली क्या है?

ब्रह्मा-मरीचि-कश्यप-विवस्वान-वैवस्वत मनु-इक्ष्वाकु-विकुक्षि-शशाद-ककुत्सथ-अनेनस्-पृथुलाश्व-प्रसेनजित्-युवनाश्व-मान्धाता-पुरुकुत्स-त्रासदस्यु-अनरण्य-हर्यश्व-वसुमनस्-सुधन्वा-त्रय्यारुण-सत्यव्रत-हरिश्चन्द्र-रोहिताश्व-हारीत-चुञ्चु-सुदेव-भरुक-बाहुक-सगर-असमञ्जस्-अंशुमान-भगीरथ-श्रुत-सिन्धुद्वीप-अयुतायुस्-ऋतुपर्ण-सर्वकाम-सुदास्-मित्रसह-अश्मक-मूलक-दिलीप-रघु-अज-दशरथ-श्रीराम जी

सदाचार के बाधक १२ दोष

असूया, अभिमान, शोक, काम, क्रोध, लोभ, मोह, असंतोष, निर्दयता, ईर्ष्या, निंदा और स्पृहा - ये बारह दोष हमेशा त्यागने योग्य हैं। जैसे शिकारी मृगों का शिकार करने के अवसर की तलाश में रहता है, इसी तरह, ये दोष भी मनुष्यों की कमजोरियाँ देखकर उन पर आक्रमण कर देते हैं।

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एकलव्य की मृत्यु किसके हाथों हुई थी ?

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