"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" का अर्थ है "माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।" यह गहन विचार, जो रामायण में निहित है, भारतीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों में गहराई से स्थापित एक विश्वास को दर्शाता है कि माँ और मातृभूमि के प्रति प्रेम स्वर्ग की सुख-सुविधाओं से भी अधिक महान है। इस विचार को सत्य सिद्ध करने के लिए हमें इसे भावनात्मक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से समझना होगा।
1. माँ के साथ भावनात्मक बंधन
इस श्लोक का पहला शब्द, माँ के प्रति आदर और श्रद्धा है, जो जीवनदायिनी होती है। माँ और संतान के बीच का बंधन सार्वभौमिक रूप से पवित्र माना जाता है। माँ का प्रेम निःस्वार्थ और असीमित होता है, क्योंकि वह जन्म से लेकर जीवन भर अपने बच्चे का पालन-पोषण करती है, उसकी रक्षा करती है और उसका चरित्र निर्माण करती है। इस दुनिया की या स्वर्ग की कोई भी सुख-सुविधा उस प्रेम और देखभाल से बढ़कर नहीं हो सकती जो माँ देती है।
हर संस्कृति में माँ को स्नेह और सुरक्षा का स्रोत माना जाता है। बच्चे के लिए माँ की गोद एक स्वर्ग के समान होती है, जहाँ का प्रेम और सुरक्षा किसी भी अन्य स्थान की तुलना में महान है। इसलिए, यह श्लोक यह बताता है कि माँ के साथ जो भावनात्मक बंधन होता है, वह स्वर्ग के सुखों से कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है।
2. मातृभूमि से गहरा संबंध
"मातृभूमि" का अर्थ उस भूमि से है जहाँ व्यक्ति का जन्म हुआ हो, जहाँ वह पला-बढ़ा हो और जिससे वह गहराई से जुड़ा हो। यह केवल भौगोलिक स्थान नहीं है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक पहचान का आधार है। यह कथन बताता है कि जिस भूमि में हम जन्म लेते हैं, वह स्वर्ग से अधिक मूल्यवान है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज तक, ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब लोगों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा और सम्मान के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है। मातृभूमि के प्रति यह प्रेम और समर्पण व्यक्ति को अपने राष्ट्र की सेवा करने के लिए प्रेरित करता है। स्वर्ग का कोई भी सुख मातृभूमि की सेवा, सम्मान और गर्व की भावना की तुलना में महान नहीं हो सकता।
मातृभूमि हमें हमारी सांस्कृतिक पहचान, भाषा और परंपराएँ देती है, जो हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। स्वर्ग चाहे जितना भी सुंदर हो, यह वह पहचान और गर्व नहीं दे सकता जो हमें हमारी मातृभूमि से मिलता है।
3. आध्यात्मिक महत्व
भारतीय दर्शन में कर्म (कार्य) और धर्म (कर्तव्य) की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। माँ और मातृभूमि को सर्वोच्च धर्म के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। माँ की सेवा को मुक्ति का मार्ग माना जाता है, क्योंकि उसकी आशीर्वाद से व्यक्ति को समृद्धि और सुख मिलता है। इसी प्रकार, मातृभूमि की सेवा भी न केवल देशभक्ति है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक कर्तव्य भी है।
मातृभूमि की रक्षा और सेवा करना केवल राष्ट्र की सेवा नहीं है, यह एक प्रकार की पूजा है। स्वर्ग को मृत्यु के बाद मिलने वाले पुरस्कार के रूप में देखा जाता है, लेकिन भारतीय दर्शन इस जीवन में कर्म और सेवा पर जोर देता है। स्वर्ग गौण हो जाता है, जबकि माँ और मातृभूमि की सेवा इस जीवन का सर्वोच्च धर्म बन जाता है।
4. दार्शनिक दृष्टिकोण
दार्शनिक दृष्टिकोण से यह कथन गहन बुद्धिमत्ता को दर्शाता है। स्वर्ग कई धार्मिक ग्रंथों में एक ऐसा स्थान है जहाँ शाश्वत सुख मिलता है। लेकिन यह श्लोक बताता है कि स्वर्ग एक अमूर्त विचार है, जबकि माँ और मातृभूमि के साथ हमारे अनुभव वास्तविक और सजीव हैं।
यह श्लोक हमें वर्तमान में जीने, जो हमारे पास है उसका मूल्य समझने और अपने आसपास के संबंधों और स्थानों में स्वर्ग को खोजने की प्रेरणा देता है। यह हमें सिखाता है कि किसी दूरस्थ स्वर्ग की तलाश करने के बजाय, हमें अपने जीवन में, अपने कर्तव्यों में, और अपने प्रियजनों के प्रति अपने प्रेम में स्वर्ग को देखना चाहिए।
निष्कर्ष-
"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" यह गहन सत्य है, जो भावनात्मक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक रूप से हमारे जीवन को दर्शाता है। यह हमारे जीवन की सजीव वास्तविकताओं – हमारी माँ और मातृभूमि – को स्वर्ग से अधिक महान बताता है। यह गहन विचार हमें यह सिखाता है कि हमें उन लोगों और स्थानों का सम्मान और सेवा करनी चाहिए, जिन्होंने हमें जीवन, पहचान और उद्देश्य दिया है। ऐसा करके, हम पाते हैं कि परम स्वर्ग कोई दूरस्थ स्थान नहीं, बल्कि वही है जिसे हम अपने प्रेम, सेवा और भक्ति से इस जीवन में रचते हैं।
महाभारत के युद्ध में कौरव पक्ष में ११ और पाण्डव पक्ष में ७ अक्षौहिणी सेना थी। २१,८७० रथ, २१,८७० हाथी, ६५, ६१० घुड़सवार एवं १,०९,३५० पैदल सैनिकों के समूह को अक्षौहिणी कहते हैं।
सूर्य देव के श्राप से निर्धन होकर शनि देव अपनी मां छाया देवी के साथ रहते थे। सूर्य देव उनसे मिलने आये। वह मकर संक्रांति का दिन था। शनि देव के पास तिल और गुड के सिवा और कुछ नहीं था। उन्होंने तिल और गुड समर्पित करके सूर्य देव को प्रसन्न किया। इसलिए हम भी प्रसाद के रूप में उस दिन तिल और गुड खाते हैं।