वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैः
सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः |
स तु भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला
मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः ||
एक आश्रम में रहने वाला योगी एक राजा से कहता है -
हम लोग पेड के चर्म को वस्त्र के रूप में धारण कर के जितने संतुष्ट हैं, आप अत्यधिक मूल्य वाले रेशम के वस्त्र को धारण कर के भी उतने ही संतुष्ट हैं | आप के संतोष की मात्रा और हमारे संतोष की मात्रा में कोई भेद नहीं है | दरिद्र वह ही है जिस की इच्छाएं अत्यधिक होती हैं और जो सोचता रहता है कि मुझे यह चाहिए, मुझे वह चाहिए | जो मिलता है उस से ही मन संतुष्ट हो जाता है कौन धनवान और कौन दरिद्र? इस लिए अगर आप संतुष्ट रहना चाहते हों तो अपनी आशाओं पर काबू रखें |
विष्णु सहस्रनाम में भगवान विष्णु के १००० नाम हैं। यह ॐ विश्वस्मै नमः से शुरू होकर ॐ सर्वप्रहरणायुधाय नमः में समाप्त होता है।
आख्यान, उपाख्यान, गाथा और कल्पशुद्धि।
बाधाओं और भय को दूर करने के लिए मंत्र
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सिंधु तरन, सिय-सोच हरन, रबि बाल बरन तनु । भुज बिसाल, मूरति क�....
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