यथा खरश्चन्दनभारवाही भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य |
एवं हि शास्त्राणि बहून्यधीत्य ह्यर्थेषु मूढाः खरवद् वहन्ति ||
जैसे चंदन के भार को उठाता हुआ गधा बस उस के भार को ही समझता है और चंदन के मूल्य को नहीं समझता वैसे ही कुछ व्यक्ति बहुत शास्त्राध्ययन कर के भी उस के तत्त्व को न समझकर उस को धन कमाने का स्रोत ही समझते हैं |
आरती करने के तीन उद्देश्य हैं। १. नीरांजन - देवता के अङ्ग-प्रत्यङ्ग चमक उठें ताकि भक्त उनके स्वरूप को अच्छी तरह समझकर अपने हृदय में बैठा सकें। २. कष्ट निवारण - पूजा के समय देवता का भव्य स्वरूप को देखकर उनके ऊपर भक्तों की ही नज़र पड सकती है। छोटे बच्चों की माताएँ जैसे नज़र उतारती हैं, ठीक वैसे ही आरती द्वारा देवता के लिए नज़र उतारी जाती है। ३, त्रुटि निवारण - पूजा में अगर कोई त्रुटि रह गई हो तो आरती से उसका निवारण हो जाता है।
आर्यावर्त आर्य संस्कृति का केंद्र था। इसकी मूल सीमाएँ थीं - उत्तर में कुरुक्षेत्र, पूर्व में गया, दक्षिण में विरजा (जाजपुर, ओडिशा), और पश्चिम में पुष्कर।