श्री राम की कहानी लिखने के लिए ब्रह्मा से प्रेरित होकर महर्षि वाल्मिकी अपने शिष्य भारद्वाज के साथ स्नान और दोपहर के अनुष्ठान के लिए तमसा नदी के तट पर गए। वहां उन्होंने क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा आनंदपूर्वक विचरते हुए देखा। उसी समय नर क्रौंच पक्षी को एक शिकारी ने मार डाला। रक्त से लथपथ मृत पक्षी को भूमि पर देखकर मादा क्रौंचा दुःख से चिल्ला उठी। उसकी करुण पुकार सुनकर ऋषि का करुणामय हृदय अत्यंत द्रवित हो गया। वही दु:ख करुणा से भरे श्लोक में बदल गया और जगत के कल्याण के लिए महर्षि वाल्मिकी के मुख से निकला - मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।। श्लोक का सामान्य अर्थ शिकारी को श्राप है - 'हे शिकारी, तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर पाओ, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला ।।' लेकिन वास्तविक अर्थ यह है- ' हे लक्ष्मीपति राम, आपने रावण-मंदोदरी जोड़ी में से एक, विश्व-विनाशक रावण को मार डाला है, और इस प्रकार, आप अनंत काल तक पूजनीय रहेंगे।'
कोई भी अनुभव बिना कारण का नहीं होता। श्रीराम जी मानते थे कि कौसल्या माता ने पूर्व जन्म में किसी माता के अपने पुत्र से वियोग करवाया होगा। इसलिए उनको इस जन्म में पुत्र वियोग सहना पडा।