मन्त्रार्थं मन्त्रचैतन्यं यो न जानाति साधकः । शतलक्षप्रजप्तोऽपि तस्य मन्त्रो न सिध्यति - जो व्यक्ति मंत्र का अर्थ और सार नहीं जानता, वह इसे एक अरब बार जपने पर भी सफल नहीं होगा। मंत्र के अर्थ को समझना महत्वपूर्ण है। मंत्र के सार को जानना आवश्यक है। इस ज्ञान के बिना, केवल जप करने से कुछ नहीं होगा। बार-बार जपने पर भी परिणाम नहीं मिलेंगे। सफलता के लिए समझ और जागरूकता आवश्यक है।
किसी निर्दोष की जान बचाने, विवाह के दौरान, पारिवारिक सम्मान की रक्षा के लिए, या विनोदी चिढ़ाने जैसी स्थितियों में, असत्य बोलना गलत नहीं माना जाता है। ऐसे झूठ से धर्म नहीं टूटता. धर्म की रक्षा जैसे अच्छे उद्देश्य के लिए असत्य बोलना पाप नहीं है।
हमने अब तक देखा है कि कैसे नागों की माता कद्रू ने अपने पुत्रों को श्राप दिया कि वे जनमेजय के सर्प-यज्ञ में जलकर मर जाएंगे। और आस्तिक का जन्म के बारे में भी जो बीच में ही सर्प-यज्ञ को रोक देगा और नाग-वंश के विनाश से बचाएअगा। इससे प....
हमने अब तक देखा है कि कैसे नागों की माता कद्रू ने अपने पुत्रों को श्राप दिया कि वे जनमेजय के सर्प-यज्ञ में जलकर मर जाएंगे।
और आस्तिक का जन्म के बारे में भी जो बीच में ही सर्प-यज्ञ को रोक देगा और नाग-वंश के विनाश से बचाएअगा।
इससे पहले हमने यह भी देखा कि कैसे ऋषि उत्तंक ने जनमेजय को सर्प-यज्ञ करने के लिए उकसाया था।
उत्तंक ने केवल उकसाया।
लेकिन जनमेजय पूरे नाग-वंश का नाश क्यों करना चाहते थे?
यह एक बदला था।
तक्षक द्वारा अपने पिता की हत्या का बदला।
जनमेजय के पिता थे परीक्षित।
अभिमन्यु का पुत्र।
परीक्षित बडे धर्मात्मा थे।
वे जानते थे कि धर्म क्या है।
उस समय का धर्म वर्णाश्रम-धर्म था।
समाज का चार वर्णों में विभाजन गुण और कर्म पर आधारित था।
बुद्धिजीवी मार्गदर्शन करेंगे और पढ़ाएंगे।
शारीरिक रूप से जो मजबूत हैं वे समाज की रक्षा करेंगे।
एक और वर्ग धन पैदा करेगा।
और बहुसंख्यक लोग सभी कार्यों का निष्पादन करेंगे।
आप एक कॉर्पोरेट, एक कंपनी को ही लीजिए।
आपको वहां भी यही दिखाई देगा।
पहला बुद्धिजीवी: वैज्ञानिक, इंजीनियर जो वित्त का प्रबंधन करते हैं, योजना बनाते हैं; शायद 5 या 10 लोग।
दूसरा : जो उस कंपनी को सुरक्षित रखते हैं इंटरनेट के स्तर पर भी उसकी की रक्षा करते हैं; शायद 50 या 100 लोग।
तीसरा: जो बाहर जाकर उत्पाद को बेचते हैं, आमदनी उत्पन्न करते हैं; शायद 50 या 100 लोग।
बहुसंख्यक कर्मचारी 2000 या 2500 लोग उत्पादन, लोडिंग-अनलोडिंग, लौजिस्टिक्स, मंटनेन्स इन सब कार्यों में लगे रहते हैं।
जिसे आप चातुर्वर्ण्य कहते हैं (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र) वह इसके समान था।
अब, यदि इस कंपनी को सफलतापूर्वक कार्य करना है तो इस विन्यास को बनाए रखना होगा।
कर्मचारियों की तरक्की होती है।
कोई टेक्नीशियन से इंजिनीयर बनता है।
लोगों को काम पर रखा जाता है, काम से निकाला जाता है।
लेकिन विन्यास बना हुआ रहता है।
यही राजा का भी कर्तव्य है।
राजा के पास समाज के स्वरूप को बनाए रखने के लिए ज्ञान और क्षमता होनी चाहिए।
समाज के स्वरूप को बनाए रखना राजा का धर्म है।
परीक्षित धर्मात्मा थे।
वे जानते थे कि धर्म क्या है और यह भी जानते थे कि इसे कैसे कायम रखना है।
जैसे आज हमारे पास विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं।
विधायिका कानून बनाती है।
कार्यपालिका उन कानूनों को लागू करती है।
न्यायपालिका न्याय सुनिश्चित करती है।
उस समय कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों ही राजाओं द्वारा नियंत्रित होता था।
नियम के ग्रन्थ पीढ़ियों से चली आ रही हैं, स्मृति और नीति-शास्त्र के रूप में, समय-समय पर इनका पुनर्लेखन और संशोधन भी होता था।
परीक्षित ने राजा के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया।
राजा परीक्षित की एक विशेषता यह थी कि उनका किसी से वैर नहीं था।
और कोई उन्हें नापसंद भी नहीं करता था।
उनके शासन में सभी संतुष्ट थे।
उन्होंने विधवाओं, अनाथों और दिव्यांगों के कल्याण का विशेष ध्यान रखा।
धनुर्वेद में उनके गुरु थे कृपाचार्य ।
उनका नाम परीक्षित क्यों रखा गया?
परिक्षीणेषु कुरुषु सोत्तरायामजीजनत् ।
जब उन्होंने जन्म लिया, कुरु-वंश अपने सबसे निचले स्तर पर था, वह परिक्षीण था, कमजोर था।
राजा परीक्षित के केवल छः शत्रु थे: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य और उन्होंने उन सभी के ऊपर विजय पाया।
उनका मन उनके वश में था।
महाभारत उनकी इतनी प्रशंसा कर रहा है क्योंकि हम उनके बारे में गलत न सोच बैठें।
हम उन्हें एक घमंडी राजा के रूप में सोचते हैं, जिसने एक मरे हुए सांप को एक ऋषि के गले में डाल दिया था।
नहीं।
वे सबके लिए प्रिय थे।
वे एक अच्छे प्रशासक थे।
बहुत बुद्धिमान थे ।
वे 60 वर्ष की आयु तक जीवित रहे।
अब आगे हम देखेंगे कि उनकी मृत्यु किस कारण से हुई।