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रामायण के मा निषाद श्लोक का अर्थ

श्री राम की कहानी लिखने के लिए ब्रह्मा से प्रेरित होकर महर्षि वाल्मिकी अपने शिष्य भारद्वाज के साथ स्नान और दोपहर के अनुष्ठान के लिए तमसा नदी के तट पर गए। वहां उन्होंने क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा आनंदपूर्वक विचरते हुए देखा। उसी समय नर क्रौंच पक्षी को एक शिकारी ने मार डाला। रक्त से लथपथ मृत पक्षी को भूमि पर देखकर मादा क्रौंचा दुःख से चिल्ला उठी। उसकी करुण पुकार सुनकर ऋषि का करुणामय हृदय अत्यंत द्रवित हो गया। वही दु:ख करुणा से भरे श्लोक में बदल गया और जगत के कल्याण के लिए महर्षि वाल्मिकी के मुख से निकला - मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।। श्लोक का सामान्य​ अर्थ शिकारी को श्राप है - 'हे शिकारी, तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर पाओ, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला ।।' लेकिन वास्तविक अर्थ यह है- ' हे लक्ष्मीपति राम, आपने रावण-मंदोदरी जोड़ी में से एक, विश्व-विनाशक रावण को मार डाला है, और इस प्रकार, आप अनंत काल तक पूजनीय रहेंगे।'

गौओं का स्थान देवताओं के ऊपर क्यों है?

घी, दूध और दही के द्वारा ही यज्ञ किया जा सकता है। गायें अपने दूध-दही से लोगों का पालन पोषण करती हैं। इनके पुत्र खेत में अनाज उत्पन्न करते हैं। भूख और प्यास से पीडित होने पर भी गायें मानवों की भला करती रहती हैं।

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पुत्र प्राप्ति के लिये किस राजा ने नन्दिनी की सेवा की थी ?

ॐ ऋषिरुवाच । आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः । चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः । ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम् । सिंहस्योपरि शैलेन्द्रश‍ृङ्गे महति काञ्चने । ते दृष्ट्वा तां समादा�....

ॐ ऋषिरुवाच ।
आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः ।
चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः ।
ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम् ।
सिंहस्योपरि शैलेन्द्रश‍ृङ्गे महति काञ्चने ।
ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः ।
आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः ।
ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन्प्रति ।
कोपेन चास्या वदनं मषीवर्णमभूत्तदा ।
भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्रुतम् ।
काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी ।
विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा ।
द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ।
अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा ।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा ।
सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान् ।
सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् ।
पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहयोधघण्टासमन्वितान् ।
समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान् ।
तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह ।
निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्यतिभैरवम् ।
एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम् ।
पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् ।
तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः ।
मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि ।
बलिनां तद्बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम् ।
ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तदा ।
असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गताडिताः ।
जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा ।
क्षणेन तद्बलं सर्वमसुराणां निपातितम् ।
दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् ।
शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः ।
छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः ।
तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम् ।
बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् ।
ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी ।
काली करालवदना दुर्दर्शदशनोज्ज्वला ।
उत्थाय च महासिंहं देवी चण्डमधावत ।
गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत् ।
अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् ।
तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा ।
हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् ।
मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम् ।
शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च ।
प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् ।
मया तवात्रोपहृतौ चण्डमुण्डौ महापशू ।
युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि ।
ऋषिरुवाच ।
तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ ।
उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः ।
यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता ।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवी भविष्यसि ।
मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये सप्तमः ।

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