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आपके मंत्रों से बहुत लाभ मिला है। 😊🙏🙏🙏 -मधुबाला

वेदधारा से जब से में जुड़ा हूं मुझे अपने जीवन में बहुत कुछ सीखने को मिला वेदधारा के विचारों के माध्यम से हिंदू समाज के सभी लोगों को प्रेरणा लेनी चाहिए। -नवेंदु चंद्र पनेरु

आपको नमस्कार 🙏 -राजेंद्र मोदी

आपकी वेबसाइट बहुत ही अनोखी और ज्ञानवर्धक है। 🌈 -श्वेता वर्मा

यह वेबसाइट बहुत ही शिक्षाप्रद और विशेष है। -विक्रांत वर्मा

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महर्षि मार्कंडेय: भक्ति की शक्ति और अमर जीवन

मार्कंडेय का जन्म ऋषि मृकंडु और उनकी पत्नी मरुद्मति के कई वर्षों की तपस्या के बाद हुआ था। लेकिन, उनका जीवन केवल 16 वर्षों के लिए निर्धारित था। उनके 16वें जन्मदिन पर, मृत्यु के देवता यम उनकी आत्मा लेने आए। मार्कंडेय, जो भगवान शिव के परम भक्त थे, शिवलिंग से लिपटकर श्रद्धा से प्रार्थना करने लगे। उनकी भक्ति से प्रभावित होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्हें अमर जीवन का वरदान दिया, और यम को पराजित किया। यह कहानी भक्ति की शक्ति और भगवान शिव की कृपा को दर्शाती है।

पुरूरवा कौन है?

पुरूरवा बुध और इला (सुद्युम्न) का पुत्र है।

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पाण्डु के पिता कौन था ?

अथाऽर्गलास्तोत्रम् अस्य श्री-अर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य। विष्णु-र्ऋषिः। अनुष्टुप् छन्दः। श्रीमहालक्ष्मीर्देवता। श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गजपे विनियोगः। ॐ नमश्चण्डिकायै। जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली �....

अथाऽर्गलास्तोत्रम्
अस्य श्री-अर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य। विष्णु-र्ऋषिः।
अनुष्टुप् छन्दः। श्रीमहालक्ष्मीर्देवता।
श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गजपे विनियोगः।
ॐ नमश्चण्डिकायै।
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते।
मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
महिषासुरनिर्नाशविधात्रिवरदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चाण्डिके दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या त्वमम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
सुराऽसुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।
पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वकामांश्च देहि मे।
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणि दुर्गसंसारसागरस्याचलोद्भवे।
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशतीसङ्ख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्।
मार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रम्।
अथ कीलकस्तोत्रम्
अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिव-ऋषिः। अनुष्टुप् छन्दः।
श्रीमहासरस्वती देवता। श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं
सप्तशतीपाठाङ्गजपे विनियोगः।
ॐ नमश्चण्डिकायै।
ॐ मार्कण्डेय उवाच ।
विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे।
सर्वमेतद् विना यस्तु मन्त्राणामपि कीलकम्।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जप्यतत्परः।
सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रमात्रेण सिध्यति।
न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।
विना जप्येन सिद्धेन सर्वमुच्चाटनादिकम्।
समग्राण्यपि सिध्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम्।
स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुह्यं चकार सः।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्निमन्त्रणाम्।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः।
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्।
यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति सुस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते वने।
न चैवाप्यगतस्तस्य भयं क्वापि हि जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमाप्नुयात्।
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत ह्यकुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव संपन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः।
सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम्।
शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत्।
ऐश्वर्यं तत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः।
भगवत्याः कीलकस्तोत्रम्।

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