दिये में अग्निदेव का सान्निध्य है। घर के मुख्य द्वार पर दिया जलाने से अग्निदेव नकारात्मक शक्तियों को घर में प्रवेश करने से रोकते हैं।
मन्त्रार्थं मन्त्रचैतन्यं यो न जानाति साधकः । शतलक्षप्रजप्तोऽपि तस्य मन्त्रो न सिध्यति - जो व्यक्ति मंत्र का अर्थ और सार नहीं जानता, वह इसे एक अरब बार जपने पर भी सफल नहीं होगा। मंत्र के अर्थ को समझना महत्वपूर्ण है। मंत्र के सार को जानना आवश्यक है। इस ज्ञान के बिना, केवल जप करने से कुछ नहीं होगा। बार-बार जपने पर भी परिणाम नहीं मिलेंगे। सफलता के लिए समझ और जागरूकता आवश्यक है।
नैमिषारण्य में ऋषियों ने सूतजी से छः सवाल पूछे थे । उनमें से तीन हम देख चुके हैं । सबसे श्रेष्ठ लक्ष्य क्या है? इसे कैसे पाया जाएं? भगवान ने देवकी और वसुदेव का पुत्र बनकर अवतार क्यों लिया है? अब चौथा सवाल - तस्य कर्�....
नैमिषारण्य में ऋषियों ने सूतजी से छः सवाल पूछे थे ।
उनमें से तीन हम देख चुके हैं ।
सबसे श्रेष्ठ लक्ष्य क्या है?
इसे कैसे पाया जाएं?
भगवान ने देवकी और वसुदेव का पुत्र बनकर अवतार क्यों लिया है?
अब चौथा सवाल -
तस्य कर्माण्युदाराणि परिगीतानि सूरिभिः ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां लीलया दधतः कलाः ॥
हमें उनकी लीलाओं के बारे में बताइए ।
क्या है लीला का अर्थ?
कर्म और लीला एक नहीं है ।
हम जो कार्य करते हैं वह कर्म है, लीला नहीं है ।
भगवान जब करते हैं तो वह लीला है ।
अनायासेन हर्षात्क्रियमाणा चेष्टा लीला ।
अनायास तरीके से खुशी से खेल खेल में जो करते हैं वह है लीला ।
भगवान की करोडों लीलाएं हैं ।
ब्रह्माण्ड के सृजन से लेकर सब कुछ उनकी लीलाएं ही हैं ।
इन लीलाओं से प्रत्यक्ष रूप से और परोक्ष रूप से जगत को लाभ मिला है ।
ऐसा भी नहीं है कि इन अवतारों के बारे में पहले किसी ने न बताया हो ।
नारद जैसे विद्वानों ने पहले भी बताया है ।
पर, हमें तृप्ति नहीं हुई है ।
हमें बार बार सुनने का मन करता है ।
जीभ तृप्त हो सकती है ।
पेट तृप्त हो सकता है ।
पर कान जो भगवान की लीलाओं को सुनने तरस रहे हैं, कभी तृप्त नहीं होते ।
न सिर्फ श्रीकृष्णावतार के बारे में, अन्य अवतारों के बारे में भी हमें सुनना है ।
अथाख्याहि हरेर्धीमन्नवतारकथाः शुभाः ।
लीला विदधतः स्वैरमीश्वरस्यात्ममायया ॥
अवतारों के विषय में चार प्रकार के सवाल हो सकते हैं ।
कोई अवतार कब हुआ ?
उस अवतार का आकार और स्वभाव क्या था ?
अवतार कहां हुआ ?
अवतार किसलिए हुआ ?
इन सवालों का जवाब मिलने से ही श्रोता को बहुत लाभ मिलता है ।
भगवान कैसे अवतार लेते हैं ?
आत्ममायया ।
जब उन्हें अवतार लेने की इच्छा होती है, तब अपनी ही माया शक्ति से अवतार लेते हैं भगवान ।
भगवान को अवतार लेने कोई विवश नहीं कर सकता ।
अवतार लेने भगवान किसी अन्य शक्ति का अश्रय भी नहीं लेते ।
उनकी ही शक्ति है - माया शक्ति ।
ऋषि जन सूतजी को धीमन् कहकर पुकार रहे हैं ।
धी का अर्थ है बुद्धि ।
अवतारों के रहस्य को जानने बुद्धि आवश्यक है ।
बुद्धिमान लोग ही इसे समझ पाएंगे ।
वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे ।
यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ॥
तीन परिस्थितियों में ही कोई श्रोता लीलाओं के श्रवण से विरत हो सकता है ।
एक - इनसे भी अच्छा और कुछ सुनने को मिले ।
यह तो संभव नहीं है ।
दो - लीलाओं का अभाव ।
या कोई सुनानेवाला नहीं है ।
यह भी संभव नहीं है ।
तीन - दिलचस्पी नहीं आ रही है ।
यह हो सकता है ।
कोई कोई संगीत का आनन्द नहीं ले पाता है ।
क्या कर सकते हैं ?
उनमें वह अभिरुचि नहीं है ।
क्या कर सकते हैं ।
फिर भी गाना एक दो बार सुनकर तो देखॊ ।
तभी तो पता चलेगा न अभिरुचि है कि नहीं है ?
किसी dish का recipe जितना भी रट लो जब तो उसे बनाकर मुंह में रखकर देखोगे नहीं तो उसका स्वाद कैसे पता चलेगा ?
भागवत के बारे में सुने होंगे ।
भागवत को ही सुनो ।
बारे में नहीं ।
तभी तो पता चलेगा अभिरुचि है कि नहीं ।
पर जिनको अभिरुचि है उनकी अभिरुचि हर कदम बढती ही जाती है ।
उनका आनन्द बढता ही जाता है ।
वे कभी तृप्त नहीं होते ।
जैसे जैसे मन से अज्ञान का अन्धकार निकलता जाएगा, अभिरुचि बढती जाएगी, श्रवण में ।
भगवान की लीलाओं को विक्रम कहते हैं ।
ये उनके कर्म हैं ।
उनका कोई वर्णन नहीं, जैसे उनके सौन्दर्य का वर्णन ।
ये कर्म हैं ।
अब बीसवां श्लोक -
कृतवान् किल वीर्याणि सह रामेण केशवः ।
अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः ॥
सब कुछ सुनना है ।
भगवान ने जो कुछ भी किया सब सुनना है ।
छ्ल कपट करते हैं भगवान ।
मनुष्य रूप का धारण कपट है ।
मैं मनुष्य हूं दिखाकर धोखा दे रहे हैं, हमें ।
और जो करते हैं वह सब अमानुषी कार्य ।
और बलरामजी के साथ मिलकर साहस करते हैं ।
एक पूर्णावतार और एक आवेशावतार मिलकर साहस करना पहले कभी नहीं हुआ है ।
और इस श्लोक में केशव शब्द को देखिए ।
कश्च ईशश्च केशौ । केशयोर्वं अमृतं यस्मादिति केशवः ।
कः अर्थ है ब्रह्मा ।
ईशः शिव ।
दोनों मिलकर हुए केशौ ।
भगवान इन दोनों के लिए अमृत के समान है ।
वं अमृत का बीजाक्षर है ।
श्रीकृष्णावतार में भगवान ने ब्रह्मा और शंकर को आनन्द ही दिया है ।
नृसिंहावतार में ब्रह्मा के भक्त हिरण्यकशिपु को मारा ।
रामावतार में शिव के भक्त रावण को मारा ।
पर श्रीकृष्णावतार में उन दोनों को आनन्द ही दिया ।
तो यही है पांचवां सवाल - भगवान ने क्या क्या किया अवतार लेकर ?