गण्डान्त तीन प्रकार के हैं: नक्षत्र-गण्डान्त , राशि-गण्डान्त, तिथि-गण्डान्त। अश्विनी, मघा, मूल इन तीन नक्षत्रों के प्रथम चरण; रेवती, आश्लेषा, ज्येष्ठा इन तीन नक्षत्रों के अन्तिम चरण; ये हुए नक्षत्र-गण्डान्त। मेष, सिंह, धनु इन तीन राशियों की प्रथम घटिका; कर्क, वृश्चिक, मीन इन तीन राशियों की अंतिम घटिका; ये हुए राशि गण्डान्त। अमावास्या, पूर्णिमा, पञ्चमी, दशमी इन चार तिथियों की अंतिम तीन घटिका; प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी इन तीन तिथियों की प्रथम तीन घटिका; ये हुए तिथि-गण्डान्त। गण्डान्तों में जन्म अशुभ माना जाता है। गण्डान्तों में शुभ कार्यों को करना भी वर्जित है।
जीवन में, हम अक्सर भ्रमों का सामना करते हैं जो हमारे निर्णय और समझ को धूमिल कर देते हैं। ये भ्रम कई रूपों में आ सकते हैं: भ्रामक जानकारी, झूठी मान्यताएं, या ध्यान भटकाने वाली चीजें जो हमें हमारे सच्चे उद्देश्य से दूर ले जाती हैं। विवेक और बुद्धि का विकास करना महत्वपूर्ण है। जो आपके सामने प्रस्तुत किया जाता है, उस पर सतर्क रहें और सवाल करें, यह समझते हुए कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती। सत्य और असत्य के बीच अंतर करने की क्षमता एक शक्तिशाली उपकरण है। अपने भीतर स्पष्टता की खोज करके और दिव्य के साथ संबंध बनाए रखकर, आप जीवन की जटिलताओं को आत्मविश्वास और अंतर्दृष्टि के साथ नेविगेट कर सकते हैं। चुनौतियों को समझ को गहरा करने के अवसर के रूप में अपनाएं, और भीतर की रोशनी को सत्य और पूर्ति की ओर मार्गदर्शन करने दें। याद रखें कि सच्चा ज्ञान सतह से परे देखने से आता है, चीजों के सार को समझने से और अस्तित्व की भव्य टेपेस्ट्री में अपनी क्षमता को महसूस करने से आता है।
विष्णुर्मामग्रतः पातु कृष्णो रक्षतु पृष्ठतः । हरिर्मे रक्षतु शिरो हृदयं च जनार्दनः ॥ मनो मम हृषीकेशो जिह्वां रक्षतु केशवः । पातु नेत्रे वासुदेवः श्रोत्रे सङ्कर्षणो विभुः ॥ प्रद्युम्नः पातु मे घ्राणमनिरुद्धस्तु ....
विष्णुर्मामग्रतः पातु कृष्णो रक्षतु पृष्ठतः ।
हरिर्मे रक्षतु शिरो हृदयं च जनार्दनः ॥
मनो मम हृषीकेशो जिह्वां रक्षतु केशवः ।
पातु नेत्रे वासुदेवः श्रोत्रे सङ्कर्षणो विभुः ॥
प्रद्युम्नः पातु मे घ्राणमनिरुद्धस्तु चर्म च ।
वनमाला गलस्यान्तं श्रीवत्सो रक्षतादधः ॥
पार्श्वं रक्षतु मे चक्रं वामं दैत्यनिवारणम् ।
दक्षिणं तु गदा देवी सर्वासुरनिवारिणी ॥
उदरं मुसलं पातु पृष्ठं मे पातु लाङ्गलम् ।
ऊर्ध्वं रक्षतु मे शार्ङ्गं जङ्घे रक्षतु नन्दकः ॥
पार्णी रक्षतु शङ्खश्च पद्मं मे चरणावुभौ ।
सर्वकार्यार्थसिद्ध्यर्थं पातु मां गरुडः सदा ॥
वराहो रक्षतु जले विषमेषु च वामनः ।
अटव्यां नरसिंहश्च सर्वतः पातु केशवः ॥
हिरण्यगर्भो भगवान् हिरण्यं मे प्रयच्छतु ।
सांख्याचार्यस्तु कपिलो धातुसाम्यं करोतु मे ॥
श्वेतद्वीपनिवासी च श्वेतद्वीपं नयत्वजः ।
सर्वान् सूदयतां शत्रून् मधुकैटभमर्दनः ॥
सदाकर्षतु विष्णुश्च किल्बिषं मम विग्रहात् ।
हंसो मत्स्यस्तथा कूर्म: पातु मां सर्वतो दिशम् ॥
त्रिविक्रमस्तु मे देवः सर्वपापानि कृन्ततु ।
तथा नारायणो देवो बुद्धिं पालयतां मम ॥
शेषो मे निर्मलं ज्ञानं करोत्वज्ञाननाशनम् ।
वडवामुखो नाशयतां कल्मषं यत्कृतं मया ॥
पद्भ्यां ददातु परमं सुखं मूर्ध्नि मम प्रभुः ।
दत्तात्रेयः प्रकुरुतां सपुत्रपशुबान्धवम्॥
सर्वानरीन् नाशयतु रामः परशुना मम ।
रक्षोघ्नस्तु दाशरथिः पातु नित्यं महाभुजः ॥
शत्रून् हलेन मे हन्याद्रामो यादवनन्दनः ।
प्रलम्बकेशिचाणूरपूतनाकंसनाशनः ।
कृष्णस्य यो बालभावः स मे कामान् प्रयच्छतु ॥
अन्धकारतमोघोरं पुरुषं कृष्णपिङ्गलम्।
पश्यामि भयसंत्रस्तः पाशहस्तमिवान्तकम् ॥
ततोऽहं पुण्डरीकाक्षमच्युतं शरणं गतः ।
धन्योऽहं निर्भयो नित्यं यस्य मे भगवान् हरिः ॥
ध्यात्वा नारायणं देवं सर्वोपद्रवनाशनम् ।
वैष्णवं कवचं बद्ध्वा विचरामि महीतले ॥
अप्रधृष्योऽस्मि भूतानां सर्वदेवमयो ह्यहम् ।
स्मरणाद्देवदेवस्य विष्णोरमिततेजसः ॥
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