श्रीपराशरजी बोले - इस प्रकार अनेक युक्तियों से मायामोह ने दैत्योंको विचलित कर दिया जिससे उनमें से किसी की भी वेदत्रयीमें रुचि नहीं रही ॥ ३२ ॥
इस प्रकार दैत्यों के विपरीत मार्ग में प्रवृत्त हो जाने पर देवगण खूब तैयारी करके उनके पास युद्ध के लिये उपस्थित हुए॥ ३३॥
हे द्विज! तब देवता और असुरों में पुनः संग्राम छिड़ा। उस में सन्मार्गविरोधी दैत्यगण देवताओंद्वारा मारे गये॥ ३४॥
हे द्विज! पहले दैत्यों के पास जो स्वधर्मरूप कवच था उसी से उनकी रक्षा हुई थी। अबकी बार उसके नष्ट हो जाने से वे भी नष्ट हो गये ॥ ३५ ॥
हे मैत्रेय! उस समय से जो लोग मायामोह द्वारा प्रवर्तित मार्ग का अवलम्बन करनेवाले हुए; वे नग्न कहलाये क्योंकि उन्होंने वेदत्रयीरूप वस्त्र को त्याग दिया था॥३६॥
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी - ये चार ही आश्रमी हैं। इनके अतिरिक्त पाँचवाँ आश्रमी और कोई नहीं है॥३७॥
हे मैत्रेय! जो पुरुष गृहस्थाश्रम को छोड़नेके अनन्तर वानप्रस्थ या संन्यासी नहीं होता वह पापी भी नग्न ही है॥३८॥
हे विप्र! सामर्थ्य रहते हुए भी जो विहित कर्म नहीं करता वह उसी दिन पतित हो जाता है और उस एक दिन-रात में ही उसके सम्पूर्ण नित्यकर्मो का क्षय हो जाता है॥ ३९ ॥
हे मैत्रेय! आपत्तिकाल को छोड़कर और किसी समय एक पक्ष तक नित्यकर्म का त्याग करनेवाला पुरुष महान् प्रायश्चित्त से ही शुद्ध हो सकता है॥ ४० ॥
जो पुरुष एक वर्षतक नित्य-क्रिया नहीं करता उसपर दृष्टि पड़ जानेसे साधु पुरुष को सदा सूर्य का दर्शन करना चाहिये। ४१ ॥
हे महामते! ऐसे पुरुष का स्पर्श होने पर वस्त्रसहित स्नान करने से शुद्धि हो सकती है और उस पापात्मा की शुद्धि तो किसी भी प्रकार नहीं हो सकती॥ ४२ ॥
जिस मनुष्य के घर से देवगण, ऋषिगण, पितृगण और भूतगण बिना पूजित हुए निःश्वास छोड़ते अन्यत्र चले जाते हैं, लोक में उस से बढ़कर और कोई पापी नहीं है॥४३॥
हे द्विज! ऐसे पुरुषके साथ एक वर्ष तक सम्भाषण, कुशलप्रश्न और उठने-बैठने से मनुष्य उसीके समान पापात्मा हो जाता है॥४४॥
जिसका शरीर अथवा गृह देवता आदि के निःश्वाससे निहत है उसके साथ अपने गृह, आसन और वस्त्र आदि को न मिलावे ॥ ४५ ॥
जो पुरुष उसके घर में भोजन करता है, उसका आसन ग्रहण करता है अथवा उसके साथ एक ही शय्या पर शयन करता है वह शीघ्र ही उसी के समान हो जाता है। ४६ ॥
१. चोदक - जो योग में उतरने के लिए प्रेरणा देते हैं २. बोधक - जो योगाभ्यास सिखाते हैं ३. मोक्षद - जो अपने शिष्य को मोक्ष तक पहुंचाते हैं।
व्यास महर्षि ने महाभारत लिखा। उनके शिष्य वैशम्पायन ने जनमेजय के सर्प यज्ञ स्थल पर महाभारत सुनाया। उग्रश्रवा सौति वहां उपस्थित थे और उन्होंने वैशम्पायन की कथा के आधार पर नैमिषारण्य आकर वहां ऋषियों को सुनाया। आज हमारे पास जो महाभारत है वह यही है।
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