वसिष्ठ जी इस प्रकार कह ही रहे थे कि भृगुवंशी परशुरामजी ने सामने खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजी से कहा - राम! तुम अपना यह राम नाम त्याग दो, अथवा मेरे साथ युद्ध करो। उनके यों कहने पर रघुकुलनन्दन श्रीराम ने मार्ग में खड़े हुए उन परशुरामजी से कहा - मैं 'राम नाम कैसे छोड़ सकता हूँ? तुम्हारे साथ युद्ध ही करूँगा, सँभल जाओ।  उनसे इस प्रकार कहकर कमललोचन श्रीराम अलग खड़े हो गये और उन वीरवर ने उस समय वीर परशुराम के सामने ही धनुष की प्रत्यञ्चा की टंकार की। तब परशुरामजी के शरीर से वैष्णव तेज निकलकर सब प्राणियों के देखते-देखते श्रीराम के मुख में समा गया। उस समय भृगुवंशी परशुराम ने श्रीराम की ओर देख प्रसन्नमुख होकर कहा - महाबाहु श्रीराम! आप ही राम हैं, अब इस विषय में मुझे संदेह नहीं है। प्रभो! आज मैं ने आपको पहचाना; आप साक्षात् विष्णु ही इस रूप में अवतीर्ण हुए हैं। वीर! अब आप अपने इच्छानुसार जाइये, देवताओं का कार्य सिद्ध कीजिये और दुष्टों का नाश करके साधु पुरुषों का पालन कीजिये। श्रीराम! अब आप स्वेच्छानुसार चले जाइये; मैं भी तपोवन को जाता हूँ। यों कहकर परशुरामजी उन दशरथ आदि के द्वारा मुनिभाव से पूजित हुए और तपस्या के लिये मन में निश्चय करके महेन्द्राचल को चले गये। तब समस्त बरातियों तथा महाराज दशरथ को महान् हर्ष प्राप्त हुआ और वे वहाँसे चलकर श्रीरामचन्द्रजी के साथ अयोध्यापुरी के निकट पहुँचे। उधर सम्पूर्ण पुरवासी मङ्गलमयी अयोध्या नगरी को सब ओर दिव्य सजावट से सुसज्जित करके शङ्ख और दुन्दुभि आदि गाजे-बाजे के साथ उनकी अगवानी के लिये निकले। नगर के बाहर आकर वे रण में अजेय श्रीरामजी को पत्नी सहित नगर में प्रवेश करते हुए देखकर आनन्दमग्न हो गये और उन्हीं के साथ अयोध्या में प्रविष्ट हुए। तत्पश्चात् मुनिवर विश्वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयों को अपने निकट आया हुआ देखकर उन्हें उनके पिता दशरथ तथा विशेषरूप से उनकी माताओं को समर्पित कर दिया। तब राजा दशरथद्वारा पूजित होकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र सहसा लौट जाने के लिये उद्यत हुए।

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