नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। 

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥ 

नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीनरनारायण और भगवती सरस्वती तथा व्यासदेव को नमन करके पुराणका प्रवचन करना चाहिये।

जो जन्म और जरा से रहित कल्याणस्वरूप अजन्मा तथा अजर हैं, अनन्त एवं ज्ञानस्वरूप हैं, महान् हैं, विशुद्ध (मलरहित), अनादि एवं पाञ्चभौतिक शरीर से हीन हैं, समस्त इन्द्रियों से रहित और सभी प्राणियोंमें स्थित हैं, माया से परे हैं, उन सर्वव्यापक, परम पवित्र, मङ्गलमय, अद्वय भगवान् श्रीहरि की मैं वन्दना करता हूँ। मैं मन, वाणी और कर्मसे विष्णु, शिव, ब्रह्मा, गणेश तथा  देवी सरस्वती को सर्वदा नमस्कार करता हूँ।

एक बार सर्वशास्त्रपारङ्गत, पुराणविद्याकुशल, शान्तचित्त महात्मा सूत जी तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग में नैमिषारण्य आये और एक पवित्र आसन पर स्थित होकर भगवान् विष्णु का ध्यान करने लगे। ऐसे उन क्रान्तदर्शी तपस्वी का दर्शन करके नैमिषारण्यवासी शौनकादि मुनियों ने उनकी पूजा की और स्तुति करते हुए उनसे यह निवेदन किया

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