जन्म से बारहवां दिन या छः महीने के बाद रेवती नक्षत्र गंडांत शांति कर सकते हैं। संकल्प- ममाऽस्य शिशोः रेवत्यश्विनीसन्ध्यात्मकगंडांतजनन सूचितसर्वारिष्टनिरसनद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं नक्षत्रगंडांतशान्तिं करिष्ये। कांस्य पात्र में दूध भरकर उसके ऊपर शंख और चन्द्र प्रतिमा स्थापित किया जाता है और विधिवत पुजा की जाती है। १००० बार ओंकार का जाप होता है। एक कलश में बृहस्पति की प्रतिमा में वागीश्वर का आवाहन और पूजन होता है। चार कलशों में जल भरकर उनमें क्रमेण कुंकुंम, चन्दन, कुष्ठ और गोरोचन मिलाकर वरुण का आवाहन और पूजन होता है। नवग्रहों का आवाहन करके ग्रहमख किया जाता है। पूजा हो जाने पर सहस्राक्षेण.. इस ऋचा से और अन्य मंत्रों से शिशु का अभिषेक करके दक्षिणा, दान इत्यादि किया जाता है।
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते । देवताभ्यो हि पूर्वं पितॄणामाप्यायनं वरम्॥ (वायु तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण) - देवकार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है। अतः देवकार्य से पूर्व पितरोंको तृप्त करना चाहिये।
इतने में आकाश में-ऐं ऐं ऐं-यह मंत्र सुनाई दिया। इस मन्त्र को वाग्बीज कहते हैं, यह माता के बीज मंत्रों में से एक है। दोनों दानवों ने इस मंत्र का जाप करना शुरू किया। जब मन्त्र उनमें दृढ हो गया तब आकाश में उन्हें बिजली दिखाई दी।....
इतने में आकाश में-ऐं ऐं ऐं-यह मंत्र सुनाई दिया।
इस मन्त्र को वाग्बीज कहते हैं, यह माता के बीज मंत्रों में से एक है।
दोनों दानवों ने इस मंत्र का जाप करना शुरू किया।
जब मन्त्र उनमें दृढ हो गया तब आकाश में उन्हें बिजली दिखाई दी।
उन्होंने मान लिया कि यह बिजली उसी मंत्र का सगुण साकार स्वरूप है।
उसी बिजली के प्रकाश में ध्यान लगाकर, भोजन छोड़कर, इन्द्रियों को अपने वश में रखकर दोनों ने एक हजार वर्ष तक घोर तपस्या की।
देवी मां प्रसन्न हो गयी और दानवों से बोली कि जो वर चाहिए, माँगो।
यह सुनकर दानवों ने कहा: हमारी मृत्यु जब हम चाहेंगे तभी होगी ऐसा वर दीजिये।
माता ने वरदान दे दिया।
दानव खुश हो गये और पहले जैसे समुद्र मे घूमने और खेलने लगे।
एक बार उन्होंने कमल पर बैठे हुए ब्रह्मा जी को देखा।
ब्रह्मा जी तपस्या कर रहे थे।
दानव खुश हो गये, चलो कोई मिल गया छेडने।
दोनों ने ब्रह्मा जी के पास जाकर कहा: कायर नहीं हो तो आओ हमारे साथ लडो।
नहीं तो यह जगह छोड़कर चले जाओ।
ब्रह्मा जी व्याकुल हो गये।
क्या करें? मैं तो कोई योद्धा नही हूं, मैं तो तपस्वी हूं।
इनके साथ कैसे लड पाऊँगा?
ब्रह्मा जी सोचने लगे कि साम-दान-भेद-दण्ड इनमें से किसका प्रयोग किया जायें।
ये दानव कितने बलवान हैं कुछ पता नहीं है, जिसके बल का अनुमान नहीं उसके साथ लड़ना मूर्खता है।
अगर मैं इनसे अच्छी बात करने लगूँगा तो ये समझेंगे कि मे कमजोर हूँ और डरा हुआ हूँ, और मुझे तुरंत ही मार देंगे।
और इन दोनों को आपस में लडाना तो सर्वथा असाध्य ही है।
इसलिये अब एक ही रास्ता है।
भगवान को जगाता हूँ, वे ही बचा पाएंगे मुझे।
ऐसा सोचकर ब्रह्मा जी श्री हरी का स्तुति पाठ करने लगे।
दीननाथ हरे विष्णो वामनोत्तिष्ठ माधव।
भक्तार्तिहृद्धृषीकेश सर्वावास जगत्पते॥
अन्तर्यामिन्नमेयात्मन् वासुदेव जगतेपते।
दुष्टारिनाशनैकाग्रचित्त चक्रगदाधर॥
सर्वज्ञ सर्वलोकेश सर्वशक्तिसमन्वित।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ देवेश दुःखनाशन पाहि माम्॥
विश्वंभर विशालाक्ष पुण्यश्रवणकीर्तन।
जगद्योने निराकार सर्गस्थित्यन्तकारक॥
इमौ दैत्यौ महाराज हन्तुकामौ महोद्धतौ।
न जानास्यखिलाधार कथं मां सङ्कटे गतम्॥
उपेक्षसेति दुःखार्त्तं यदि मां शरणं गतम्।
पालक त्वं महाविष्णो निराधारं भवेत्ततः॥
उन्होंने कहा: ये दो मदोन्मत्त दानव मुझे मारने आये हैं, आप ही जगत के स्वामी हैं, आपके शरण में मैं आया हूँ, आप ही मुझे बचा सकते हैं।
लेकिन भगवान नींद से नहीं जागे।
ब्रह्मा जी घबराने लगे।
अब मैं क्या करूं?
भगवान जग नही रहे हैं।
मैं कहाँ जाऊँ?
ये तो दानव अब मुझे मार ही देंगे।
भगवान योगनिद्रा के वश में, उस शक्ति के वश में हैं।
उनको पता ही नहीं चल रहा है कि क्या हो रहा है।
क्या करें?
अब मैं उस शक्ति की, योगनिद्रा की शरण में जाता हूँ जिसके वश में अब भगवान हैं।
जो भगवान की स्वामिनी बन गयी है।
जिसके अधीन में आकर भगवान एक साधारण प्राणी की तरह सो रहे हैं उस शक्ति ने सचमुच सारे जगत को अपने काबू में करके रखा होगा।
मुझे उस शक्ति का ही पूजन करना चाहिए।
पहले वह प्रसन्न होगी तो भगवान को मुक्त करेगी, फिर बाद में होगा लडना बचाना।
ब्रह्मा जी योग निद्रा की स्तुति करने लगे।