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श्रीमद्भागवत का दूसरा श्लोक -
धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥
पाना क्या है?
भगवान का सान्निध्य, आविर्भाव।
तन में, मन में आसपास।
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इसके लिए साधन क्या है?
धर्म का आचरण और ज्ञान।
ज्ञान कोई अन्तिम लक्ष्य नहीं है अध्यात्म में।
ज्ञान शुरुआत है।
भगवान का आविर्भाव , उनका सान्निध्य भी परम लक्ष्य नहीं है।
यह तो भोजन करने होटल पहुंचने जैसा है।
वहां से शुरू होता है भोजन नामक कार्य।
भगवान के सान्निध्य को लाकर फिर उसमें प्रवेश करना है।
उनमें लय हो जाना है।
भगवान से अलग नहीं रहना है।
उनमें लय हो जाना है।
ये सब भागवत द्वारा हो सकता है।
भागवत आपको बताएगा धर्म का आचरण कैसे करना है।
भागवत भगवान के बारे में आपको ज्ञान देगा।
भागवत भगवान का सान्निध्य लाएग।
और भागवत में आपका लय भी कराएगा।
एकदम सरल तरीके से।
इसे जरा देखते हैं।
भागवत का मार्ग एकदम अलग है।
धर्म का आधार क्या है?
वेद।
क्या है धर्म क्या है अधर्म यह वेद में बताया है।
पर वेद, विद्वानों को भी भ्रम मे डाल देते हैं।
जैसे पूर्व श्लोक में बताया था - मुह्यन्ति यत्सूरयः।
सब अपनी अपनी व्याख्या लेकर बैठ जाते हैं।
मेरी व्याख्या ही सही है दूसरों का गलत है।
अपने अपने सिद्धांत निकालते हैं।
इसके बाद आचार हैं, जिनका आधार हैं पुराण।
आचार शुद्धि और अशुद्धि इस आशय पर आधारित हैं।
आचारप्रभवो धर्म।
ये सारे आचार आपको धर्म के मार्ग पर ले जाने के लिए हैं, उतारने के लिए हैं।
पर उनका आंख बंद करके अनुकरण करने से वे अन्धश्रद्धा बन जाते हैं, अनाचार बन जाते हैं।
उदाहरण के लिए बता रहा हूं -
दक्षिण भारत के परंपरावादी परिवारों में एक प्रथा है।
अन्न को स्पर्श करने के बाद किसी दूसरी वस्तु को जैसे अचार, इसको छूने से पहले पानी को छूते हैं।
पानी को छूना हाथ धोने के समान है।
इसको देखकर आपको लगेगा कि अन्न में कुछ अशुद्धि है।
इसको करनेवाले भी ऐसे ही समझते हैं।
पर तात्पर्य क्या है?
अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्।
अन्न ब्रह्म है, परब्रह्म है, विशुद्ध है।
अन्न को स्पर्श करने से उसकी दिव्यता आपके हाथ में भी फैल जाती है।
अचार क्यों खाते हैं?
स्वाद के लिए, जीभ के सुख के लिए।
ऐसा सुख जो आदमी को संसार सागर में डुबाता जाता है।
यह आचार दिव्य अन्न और केवल इन्द्रिय को सुख देनेवाली अन्य वस्तुओं में भेद दिखाने के लिए है।
दैनिक कार्यों से ही बार बार अध्यात्मिक जागरूकता पाने के लिए है।
लेकिन इस तत्थ्य को जाने बिना इसका जो आचरण करते हैं, वे किस अज्ञान में पडे हैं, देखिए!
यही है आचारों का दोष।
आचरण करो, पर आशय जानकर।
आजके जमाने में आपको ये सब बताएगा कौन?
बताएंगे तो भी विज्ञान कहकर।
बेवकूफी ही बताएंगे।
तिलक धारण करने से पीयूष ग्रन्धि संदीप्त होगी।
कान पर जनैव को लगाने से मूत्राशय में दबाव आएगा - ऐसी बेवकूफी।
आचारों में यही कठिनाई है।
ज्ञान से ज्यादा अज्ञान फैल जाता है।
उपवास जैसे तप भी दिखावा बन गया है।
कहते हैं - मैं एकादशी करता हूं।
एकादशी में, दशमी के दिन दोपहर को भोजन के बाद सीधा द्वादशी को पारणा करना चाहिए।
वह भी द्वादशी में एक ही बार भोजन।
एकादशी की रात को जगते हुए पूरी रात भगवद्स्मरण करना है।
कौन करता है इस प्रकार?
नहीं तो क्या लाभ मिलेगा?
सत्य का आचरण करते हैं।
सोचते हैं कि मैं सत्यवादी हूं।
झूठ नही बोलता हूं।
आंखों देखी बात ही सच है।
कानों से सुनी हुई या किताब में, अखबार में लिखी हुई बात झूठ भी हो सकती है।
क्योंकि उस के पीछे और कोई है।
वह झूठ भी हो सकती है।
उसे दोहराने से आप भी मिथ्यावादी बन जाओगे।
क्या सत्यवादी लोग इतना ध्यान रख पाते हैं कि आंखों देखी ही बोलेंगे?
इन सब मार्गों में कपटता आ चुकी है।
इसी लिए भगवान ने व्यास जी के रूप में अवतार लेकर कलियुग के लिए एकदम सरल और अलग मार्ग बनाया भागवत के रूप में।
शुकदेव
पराशर महर्षि वेद व्यास जी के पिता हैं । उनकी माता का नाम है सत्यवती ।
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