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मेरे जीवन में सकारात्मकता लाने के लिए दिल से शुक्रिया आपका -Atish sahu

गुरुजी का शास्त्रों की समझ गहरी और अधिकारिक है 🙏 -चितविलास

प्रणाम गुरूजी 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏 -प्रभास

वेदधारा के कार्यों से हिंदू धर्म का भविष्य उज्जवल दिखता है -शैलेश बाजपेयी

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वेङ्कटेश सुप्रभातम् की रचना कब हुई?

वेङ्कटेश सुप्रभातम् की रचना ईसवी सन १४२० और १४३२ के बीच में हुई थी।

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दीमक को कहा: धनुष का जमीन पर रखे अग्र को खा जाओ। धनुष गिरेगा तो भगवान जग जाएंगे। दीमक ने कहा: किसी की नींद में बाधा डालना, कथा में विघ्न डालना, पति-पत्नी के एकांत को भंग करना, माता से बच्चे को अलग करना- ये सब ब्रह्महत्या के समान पा�....

दीमक को कहा: धनुष का जमीन पर रखे अग्र को खा जाओ।
धनुष गिरेगा तो भगवान जग जाएंगे।
दीमक ने कहा: किसी की नींद में बाधा डालना, कथा में विघ्न डालना, पति-पत्नी के एकांत को भंग करना, माता से बच्चे को अलग करना- ये सब ब्रह्महत्या के समान पाप हैं।
मैं क्यों करूं इस पाप को?
भगवान के निद्रा सुख को मैं नहीं तोडने वाला।
बाद में दीमक ने कहा: चलो इसमे मेरा कोई लाभ है तो सोचता हूं।
ब्रह्मा जी ने कहा: उसकी भी व्यवस्था हो जाएगी।
जब हम यज्ञ करेंगे, होम कुण्ड के आस पास बाहर जो भी भक्ष्य भोजन गिरेगा उसका तुम हिस्सेदार बनोगे।
देखो, दैविक स्तर में भी बात लेन देन की ही हो रही है क्यों कि सृष्टि के बाद जगत में जैसे कार्य और कारण का नियम है वैसे ही है लेन देन का भी नियम।
चाहे व्यवहार देवता और देवता के बीच में हो, मनुष्य और देवता के बीच में हो, या मनुष्य और मनुष्य के बीच में हो।
केवल निस्वार्थ दान से काम नहीं चलेगा।
केवल त्याग से दुनिया नहीं चलेगी।
व्यवहार का सबसे प्रथम तरीका है लेन देन।
वेद में बोला है- शतहस्तसमाहर सहस्रहस्तसङ्किर।
सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से बांटो।
तुम्हारे पास रहेगा तो ही बाँटोगे न?
लेन देन में कोई दोष नहीं है, इसमें कोई अधमता नही है।
यह ही सबसे मुख्य और प्रथम रीति है व्यवहार के लिये।
देवता लोग भी इसका आचरण करते है।
ब्रह्मा जी का वचन सुनकर दीमक धनुष को खाने लगा।
अचानक धनुष की डोरी खुल गयी।
धनुष सीधा हो गया।
उसका तना खुल गया।
उसके कारण जो शब्द निकला, उससे पृथ्वी काँपने लगी, ब्रह्माण्ड प्रक्षुब्ध हो गया, समंदर में ऊंची लहरें उडने लगी, जानवर डरकर इधर उधर भागने लगे।
देवता लोग भी घबरा गये, उन्होंने देखा तो भगवान के शरीर के ऊपर सर नहीं था।
धनुष की डोरी खुलने के आघात से, उसका अग्र जिसके ऊपर भगवान ने अपना गर्दन रखा था उस अग्र ने भगवान के गर्दन को काट दिया।
भगवान के शिरोहीन धड को देखकर सब व्याकुल हो गये और रोने लगे।
यह कैसा संकट पैदा हो गया।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
यह तो आत्मा के साथ है।
यहाँ पर आत्माओं के आत्मा परमात्मा पड़े हैं शिरोरहित धड बनकर।
देवताओं ने निश्चय कर लिया कि उनका अंत पास आ गया है।
यह क्या माया है?
कौन ले गया भगवान का सिर?
हमने तो अच्छा समझ कर किया।
भगवान जग जाएंगे तो उनकी अनुमति प्राप्त करके यज्ञ करेंगे।
इतनी सावधानी कि उनको प्रत्यक्ष नहीं जगायेंगे।
वे स्वयं ही जग जाएँ।
इसलिये दीमक को काम पर लगाया।
लेकिन यह क्या हो गया?
ये सब हमारी ही गलती है, देवता लोग रो रहे थे।
देव गुरु बृहस्पति बोले: अब यह रोना पीटना बंद करो।
विवेक से काम लो, कुछ उपाय ढूंढो।
दैवश्च पुरुषार्थश्च देवेश सदृशावुभौ।
उपायश्च विधातव्यो दैवात्फलति सर्वथा।
एक और महान तत्व, बृहस्पति देवेन्द्र से कह रहे है।
भाग्य से भी काम बनता है।
प्रयास से भी काम बनता है।
दोनों समान है।
इन्द्र बोले: मैं नहीं मानता पुरुषार्थ को, क्या फायदा है पुरुष के प्रयत्न का?
देखो स्वयं भगवान विष्णु का सिर कट गया।
भाग्य और दुर्भाग्य ये दो ही काम करते हैं, प्रयत्न से कुछ नहीं होता।
बृहस्पति बोले: यह सोच गलत है, प्रयास अलग, भाग्य अलग।
दोनों की महत्ता है, दोनों ही श्रेष्ठ हैं।
दोनों अपने अपने स्थानों में हैं।
भाग्य के भरोसे न रहकर प्रयास करना चाहिए।
देवकृपा से प्रयास सफल होता है।
देवगुरु का उपदेश है यह देवराज के प्रति।
जो तुम्हारे माथे पर लिखा है वह मिल जाएगा; ऐसा नहीं कहा उन्होंने।
देवगुरु कहते हैं: प्रयास करो।
और तुम यहां भाग्य के भरोसे बैठे हो।
भाग्य और प्रयास दोनों फल देते हैं।
लेकिन इन के अंतर को गौर से समझना चाहिए।
भाग्यवश फल प्राप्ति तुम्हारा ही पूर्व जन्म में किया हुआ अच्छे कर्मों का फल है।
इसे तुमसे कोई छीन नहीं सकता, कभी न कभी तुम्हें मिलेगा ही।
इसमें भगवान का कोई हाथ नहीं है।
लेकिन इसका कोई भरोसा नहीं है, तुम ने कर रखा है तो मिलेगा।
लेकिन प्रयास की सफलता में भगवान हाथ देते हैं।
आशीर्वाद काम करता है।
यदि तुम अपने प्रयास से, परिश्रम से सफल होना चाहते हो तो तुम्हें भगवान की कृपा अवश्य चाहिए।
भाग्य के भरोसे रहना है तो इसकी आवश्यकता नहीं है।
भगवान उन्हीं लोगों के लिये है, सुस्त व आलसी लोगों के लिये नहीं।
सुस्त व आलसी लोग अपने भाग्य के भरोसे जीयें।
इसका प्रमाण है लक्ष्मी शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत में।
लक्ष्यति पश्यति उद्योगिनमिति लक्ष्मीः।
परिश्रम करने वाले के ऊपर जिसकी नजर पड़ती है वह है लक्ष्मी।
लक्ष्मी केवल परिश्रमियों के ही ऊपर कटाक्ष करती है, भाग्य के भरोसे रहने वाले के ऊपर नहीं।
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः।
लक्ष्मी उस उत्तम पुरुष के पास ही जाती है जो परिश्रमी है।
अयोग्य होते हुए भी यदि कोई श्रीमान दिखाई दे रहा है तो समझ लेना वह उसके द्वारा किये हुए कर्म का फल है।
कभी नहीं कहना कि भगवान ने उसे बहुत कुछ दे दिया।
इस में कोई महानता की बात नहीं है।
उसे अनुग्रहीत नहीं समझना।
बस इतना है कि उसके काम का वेतन उसके पास थोड़ी देर से आ गया है।
ऐसे तत्वों को समझना ही पुराण का काम है ।

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