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संध्या देवी कौन है?

संध्या देवी ब्रह्मा जी की मानस पुत्री थी। संध्या के सौन्दर्य को देखकर ब्रह्मा को स्वयं उसके ऊपर कामवासना आयी। संध्या के मन में भी कामवासना आ गई। इस पर उन्होंने शर्मिंदगी महसूस हुई। संध्या ने तपस्या करके ऐसा नियम लाया कि बच्चों में पैदा होते ही कामवासना न आयें, उचित समय पर ही आयें। संध्या देवी का पुनर्जन्म है वशिष्ठ महर्षि की पत्नी अरुंधति।

क्या बलदेव जी ने भीमसेन को प्रशिक्षण दिया था?

द्रोणाचार्य से प्रशिक्षण पूरा होने के एक साल बाद, भीमसेन ने तलवार युद्ध, गदा युद्ध और रथ युद्ध में बलदेव जी से प्रशिक्षण प्राप्त किया था।

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ब्रह्मसूत्र किस दर्शन से संबन्धित है ?

गीता का आविर्भाव कब हुआ था? इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ मैं ने सबसे पहले इस योग का उपदेश दिया विवस्वान को किया। विवस्वान ने अपने पुत्र मनु को। ....


गीता का आविर्भाव कब हुआ था?

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥

मैं ने सबसे पहले इस योग का उपदेश दिया विवस्वान को किया।

विवस्वान ने अपने पुत्र मनु को।

मनु ने इक्ष्वाकु को अपने पुत्र को।

यह पहला उपदेश कब हुआ होगा?

आइए जरा देखते हैं।

वैसे तो हम सत्य-त्रेता-द्वापर और कलि युगों के चक्र को मानते हैं।

एक मन्वन्तर में ऐसे ७१ चतुर्युग होते हैं।

एक कल्प में १४ मन्वन्तर होते हैं।

एक कल्प की अवधि है ४.३२ अरब वर्ष।

यही विश्व की अवधि है सृष्टि से लेकर संहार तक।

इसके अलावा भी एक युग-व्यवस्था है।

जैसे अंग्रेजी कलंडर और भारतीय पंचाग साथ में चलते हैं, कुछ कुछ उसी प्रकार।

इसे समझने के लिए थोडे समय के लिए सत्य-त्रेता-द्वापर कलि इस युग व्यवस्था को भूल जाइए।

इस अन्य युग व्यवस्था में छः युग होते हैं।

तमोयुग, प्राणीयुग, आदियुग, मणिजायुग, स्पर्द्धायुग और देवयुग।

यही मानव की सभ्यता के विकास का क्रम है।

इस में तमोयुग के बारे में हमें कुछ नहीं पता।

वह युग मन और वाणी के पहुंच के बाहर है।

वेद में इसके बारे में संकेत हैं, स्मृति और पुराण में भी हैं।

तम आसीत् तमसा गूळहमग्रे - ऋग्वेद।

उस समय अन्धकार था।

यह अन्धकार अन्धकार से ढका हुआ था।

इसका अर्थ है इसके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है।

और जानकारी मिल भी नहीं सकती ।

असद्वा इदमग्र आसीत्।

मनु भी कहते हैं- आसीदिदं तमोभूत मप्रज्ञातमलक्षणम् अप्रतर्क्यमनिर्देश्यं प्रसुप्तमिव सर्वतः।

मत्स्यपुराण- महाप्रलयकालान्त एतदासीत्तमोमयम्

इसके बाद शुरू हुआ प्राणियुग।

उस तम से ही जीव का आविर्भाव हुआ।

सृष्टि हुई।

तमोयुग में आकार और नाम नही थे।

देवों के आकार और नाम हैं।

उस तम से ही इनकाआविर्भाव हुआ।

यहां देवों का अर्थ है अग्नि, वायु, सूर्य, जल, पृथिवी; जिनसे यह प्रपंच बना हुआ है।

इसके बाद दूसरा, प्राणी युग।

इस में अन्य जीव जाल के साथ साथ मानव की उत्पत्ति हुई थी।

पर मानव की बुद्धि का विकास नही हुआ था।

वह जानवरों के समान ही व्यवहार करता था।

उसके पास भाषा नहीं थी।

अह नग्न था।

कच्चा मांस, कन्द ,मूल, फल इत्यादि खाता था।

गुफाओं में ओर वृक्षों के ऊपर रहता था।

एक दूसरे से लडाई आम बात थी।

सभ्यता नहीं थी।

आज भी आपको अफ्रिका और आमजोन के जंगलों में ऐसे मानवों की जातियां मिलेंगी।

जिनका विकास नही हुआ है।

इसके बाद तीसरा ,आदि युग।

इसी में मानव की बुद्धि का विकास शुरू हुआ।

नग्नता से लज्जा होने लगी।

उसने देखा कि जानवरों के गुप्तांग चर्म से या रोम से या पूंछ से ढके हुए हैं।

उसने भी पत्तों से या चमडे से या छाल से अपने गुप्तांगों को छुपाने लगा।

पक्षियों को घोसला बनाते हुए देखकर उसने भी रहने के लिए पत्तों से पर्णकुटी बनाने लगा जो उसे बारिश से बचाता था, जिसके अन्दर वह सुरक्षित महसूस करने लगा।

जानवरों को झुंडों में रहते हुए देखकर मानव भी वैसे ही करने लगे।

सामाजिक-जीवी बन गये।

पशु पालन शुरू हो गया जो समाज के बढी मांगे के लिए जरूरी था।

इसके आगे चौथा, मणिजायुग।

उसमें गांव बसे, कृषि कार्य शुरु हो गया, प्रजातंत्र शुरू हो गया, पंचायत्ती राज शुरू गया।

राजा और सम्राट नहीं थे उस युग में।

प्रजातंत्र प्राकृतिक शासनिक पद्धति है।

जनता के लिए कुएं, तालाब, बगीचे ये सब बने।

चातुर्वर्ण्य का बीज उस युग में था।

ज्ञान - क्रिया - वित्त और शिल्प / हस्त कौशल इनके आधार पर चार समुदाय बने।

साध्य, महाराजिक, आभास्वर और तुषित।

कह सकते हैं ये क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्रों के स्थान में थे।

इसमें समाज का मार्ग दर्शन करते थे साध्य।

समाज की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार थे महाराजिक।

अर्थ व्यवस्था आभास्वर के हाथों में।

और निर्माण आदि कार्य तुषित सम्हालते थे।

अग्निविद्या या यज्ञविद्या का आविष्कार साध्यों ने ही किया था।

इसी का ऋषि अथर्वा ने देव युग में प्रसार किया।

पर साध्य और देवों में एक बडा फरक था।

साध्य नास्तिक थे।

उन्होंने अग्निविद्या को केवल रसायन विज्ञान के रूप में ही माना।

जो सिर्फ प्राकृतिक नियमों पर आधारित था।

उन्होंने विश्व की रचना या संचालन में किसी ईश्वरीय शक्ति जरूरी नहीं समझा।

देव के पुर्वज होने से साध्यों को भी देव ही कहते हैं।

पुरुष सूक्त में देखिए-

यज्ञेन यज्ञमयजन्त...

साध्यों ने यज्ञ से यज्ञ किया।

देव युग में यज्ञ से ईश्वर का यजन होता था।

साध्यों के यज्ञ से यज्ञ का ही यजन होता था।

उन्हें जो चाहिए थॆ उसे पाने यज्ञविद्या काफी थी।

उसमें ईश्वर का कोई स्थान नही था।

पर सभ्यता और संस्कृति उच्च कोटि में थी।

पर आस्तिक बुद्धि का अभाव और प्रजातंत्र पर आधारित अराजकता उन्हें कहां ले गये, देखिए।

आगे स्पर्धायुग का अविर्भाव हुआ।

ज्ञान को ही लेकर आपस में स्पर्धा और लडाइयां।

प्रपंच की सृष्टि के बारे में साध्यों में १० मतभेद प्रचलित हो गये।

इनको लेकर ये परस्पर लडे।

इस घोर लडाई के बाद शांति की स्थापना हुई देवयुग में।

एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ- ब्रह्मा।

उन्होंने इन दसों वादों को निष्कासित करके ब्रह्मवाद का स्थापन किया।

प्रजातंत्र को समाप्त करके एक केन्द्रीय व्यवस्था का,राजतंत्र का स्थापन किया।

समूल परिवर्तन हो गया।

देवयुग की विशेषताओं के बारे में हम आगे देखेंगे।

यहां गीता के पहले उपदेश के काल की बात हो रही है।

श्लोक में क्या है

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥

इक्ष्वाकु को मनु ने बताया।

मनु को विवस्वान ने बताया।

विवस्वान को भगवान ने बताया।

श्रीरामचन्द्र जी विवस्वान से तिरानवें वी पीढी के थे।

सोचिए कितने लाख वर्ष बीत गये गीता के सबसे पहला उपदेश होकर।

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