हमने देखा कि स्थूल शरीर के संस्कार के लिए आयुर्वेद, सूक्ष्म शरीर के संस्कार के लिए धर्मशास्त्र और कारण शरीर के संस्कार के लिए प्रस्थान त्रयी के रूप में उपनिषद शास्त्र हैं। परंतु गीता, जो प्रस्थान त्रयी के अंतर्गत है, उसमें एक खास बात है।
गीता तीनों शरीरों का संस्कार करती है।
गीता में तीनों शरीरों के लिए उपदेश हैं।
गीता में आपको आहार-विहार आदि स्थूल शरीर से संबंधित उपदेश मिलेंगे।
भावशुद्धि, आस्तिक बुद्धि आदि सूक्ष्म शरीर के संस्कार के लिए उपदेश मिलेंगे।
कारण शरीर के लिए योग के उपदेश मिलेंगे।
इसलिए, अन्य शास्त्रों की तुलना में गीता अधिक सफल और जनप्रिय है।
संस्कार शब्द का अर्थ क्या है?
पहले भी हम इसे देख चुके हैं। संस्कार शब्द में 'सं' और 'कार' हैं।
"समित्येकीभावे" - एकता को लानेवाला कर्म संस्कार है।
असंस्कृत और संस्कृत व्यक्ति या समाज में अंतर:
जिस भी वस्तु या व्यक्ति में नानात्व है, वह असंस्कृत है।
अगर भारतवासी सोचेंगे कि "मैं बंगाली हूँ, मैं दूसरों से अलग हूँ; मैं पंजाबी हूँ, दूसरों से अलग हूँ", तो वह भारत असंस्कृत है क्योंकि यहाँ नानात्व है, विषम भाव है, सम भाव नहीं है।
संस्कृत भारत की सोच यह है: "मैं भारतीय हूँ, हर भारतवासी समान है।"
नानात्व को देखना, नानात्व का आचरण करना असंस्कृति है।
एकत्व को देखना और उसका आचरण करना संस्कृति है।
संस्कार का कर्म:
जो भी कर्म हमें "मैं, तुम, वह, मेरा, तुम्हारा, हमारा" जैसी नानात्व की सोच से निकालकर एकता की ओर ले जाए, वही "सं" वाला कर्म, "सं" वाला कार्य है, और वही संस्कार है।
संस्कार कर्म के तीन अंग:
दोष और गुण:
दोष शाश्वत नहीं होते। दोष देश, काल, पात्र, द्रव्य और श्रद्धा पर निर्भर होते हैं।
उदाहरण के लिए:
समय, स्थान और पात्र के आधार पर दोष:
दोष का निर्धारण कैसे होगा?
यह इस बात पर आधारित है कि:
अगर जवाब "हाँ" है, तो वह दोष है।
समाज में रहते हुए हमारा सुख-दुख समाज पर निर्भर होता है।
अगर समाज अशांत है, तो हम भी शांत नहीं रह सकते।
व्यक्ति और समाज के बीच के संबंधों पर आगे और विचार करेंगे।
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