माथे पर, खासकर दोनों भौहों के बीच की जगह को 'तीसरी आंख' या 'आज्ञा चक्र' का स्थान माना जाता है, जो आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि और ज्ञान का प्रतीक है। यहां तिलक लगाने से आध्यात्मिक जागरूकता बढ़ने का विश्वास है। 2. तिलक अक्सर धार्मिक समारोहों के दौरान लगाया जाता है और इसे देवताओं के आशीर्वाद और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। 3. तिलक की शैली और प्रकार पहनने वाले के धार्मिक संप्रदाय या पूजा करने वाले देवता का संकेत दे सकते हैं। उदाहरण के लिए, वैष्णव आमतौर पर U-आकार का तिलक लगाते हैं, जबकि शैव तीन क्षैतिज रेखाओं वाला तिलक लगाते हैं। 4. तिलक पहनना अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को व्यक्त करने का एक तरीका है, जो अपने विश्वासों और परंपराओं की एक स्पष्ट याद दिलाता है। 5. तिलक धार्मिक शुद्धता का प्रतीक है और अक्सर स्नान और प्रार्थना करने के बाद लगाया जाता है, जो पूजा के लिए तैयार एक शुद्ध मन और शरीर का प्रतीक है। 6. तिलक पहनना भक्ति और श्रद्धा का प्रदर्शन है, जो दैनिक जीवन में दिव्य के प्रति श्रद्धा दिखाता है। 7. जिस स्थान पर तिलक लगाया जाता है, उसे एक महत्वपूर्ण एक्यूप्रेशर बिंदु माना जाता है। इस बिंदु को उत्तेजित करने से शांति और एकाग्रता बढ़ने का विश्वास है। 8. कुछ तिलक चंदन के लेप या अन्य शीतल पदार्थों से बने होते हैं, जो माथे पर एक शांत प्रभाव डाल सकते हैं। 9. तिलक लगाना हिंदू परिवारों में दैनिक अनुष्ठानों और प्रथाओं का हिस्सा है, जो सजगता और आध्यात्मिक अनुशासन के महत्व को मजबूत करता है। 10. त्योहारों और विशेष समारोहों के दौरान, तिलक एक आवश्यक तत्व है, जो उत्सव और शुभ वातावरण को जोड़ता है। संक्षेप में, माथे पर तिलक लगाना एक बहुआयामी प्रथा है, जिसमें गहरा आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक महत्व है। यह अपने विश्वास की याद दिलाता है, आध्यात्मिक चेतना को बढ़ाता है, और शुद्धता और भक्ति का प्रतीक है।
महाभारत अनुशासनपर्व.८३.१४ के अनुसार गोलोक देवताओं के लोकों के ऊपर है- देवानामुपरिष्टाद् यद् वसन्त्यरजसः सुखम्।
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः। तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि॥ इस श्लोक में- जन�....
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि॥
इस श्लोक में-
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
यह पद हमें बताता है कि प्रपंच में जितनी वस्तुएं हैं, जितने प्राणी हैं, जितनी ऊर्जाएं हैं, जितने कार्यकलाप हैं, जितनी घटनाएं हैं, इन सबका भगवान के साथ क्या संबन्ध है।
भगवान शांत समन्दर हैं, ये सब उस समन्दर से उठकर उसी में लय होनेवाली लहरें हैं।
अब आगे का पद-
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः
इस पद के अर्थ को जरा गहराई से समझते हैं।
अगर पिछला पद रूपों के बारे में है तो, जो दिखाई देते हैं, जिन्हें हम आखों द्वारा देख सकते हैं, या किसी के द्वारा वर्णित किये जाने पर मन ही मन कल्पना कर सकते हैं, ऐसे रूपों के बारे मे है तो, यह पद नामों के बारे में, शब्दों के बारे में है।
प्रपंच में हर वस्तु से, हर प्राणी से, हर कार्य से, हर दृगविषय से जुडे नाम या शब्द होते हैं।
यह कोई नाम हो सकता है जैसे तुलसी।
इस नाम को सुनते ही तुलसी का रूप मन में आ जाता है।
या तुलसी को देखते ही यह नाम मन में आ जाता है।
गरम इस शब्द को सुनते ही हमें पता चलता है कि वह कैसी अवस्था है।
नाम के बिना रूप या रूप के बिना नाम नहीं हो सकता।
ऐसे नामों का शब्दों का संचय है वेद।
वेद में, प्रपंच में जो कुछ भी हैं उन सबके नाम या उनसे जुडे श्ब्द हैं।
इन शब्द तरंगों से ही ये सब उत्पन्न होते हैं।
वस्तुएं, जीवजाल, घटनाएं, एक दूसरे के साथ रिश्ते।
तो प्रपंच को बनाने के लिए सबसे पहले भगवान ब्रह्मा जी को वेद सौंप देते हैं।
अब यहां पर एक बात।
अगर नाम के बिना रूप और रूप के बिना नाम नहीं हो सकता तो व्यास जी ने इस श्लोक में रूप के लिए एक पद और नाम के लिए एक पद क्यों बनाया?
वे एक ही पद में हो सकते हैं जैसे कि- विश्व के सारे दृगविषय और उनसे जुडे शब्द भगवान से ही उत्पन्न होते हैं।
नही, उन्होंने ऐसे नही किया।
यह इसलिए कि व्यासजी हमे बताना चाह रहे हैं कि दृगविषय हमे बांध देते हैं और वेद इनसे हमें मुक्त कराते हैं।
सांसारिक विषय पुनः पुनः हमें उसी फंदे मे डाल देते हैं जो चलता ही रहता है।
कभी खत्म नहीं होता।
वेदों के द्वारा ज्ञान प्राप्त होने पर कार्यकलाप तो हम तब भी करते रहेंगे, ज्यादा नहीं थोडा, जो बहुत ही जरूरी है उसे तो करते रहना पडेगा।
पर ये हमे बांधेंगे नहीं।
वेद के लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया गया है यहां।
क्यों?
क्यों कि वेद भी परब्रह्म की तरह अविकृत हैं।
क्या है अविकृत का तात्पर्य?
लहरें विकार हैं।
उनके आधार के रूप मे जो शांत समुद्र है वह अविकृत है।
परब्रह्म भी अविकृत है।
वेद भी अविकृत है।
यह जो भगवान ने ब्रह्मा जी को वेद सौंपा यह कोई चक्रीय यांत्रिक कार्य नहीं है भले वह समय समय पर होनेवाला चक्रीय कार्य दिखता हो।
यह हर बार भगवान जान बूछकर ही करते हैं।
अपने हृदय से करते हैं- तेने हृदा.....
अगर चाहें तो भगवान इस चक्र को बंद भी कर सकते हैं सृष्टि, पालन और संहार के इस चक्र को या इसके क्रम को बदल सकते हैं।
कुछ भी कर सकते हैं भगवान।
क्यों कि भगवान कर्तुं अकर्तुं और अन्यथा कर्तुं समर्थ हैं।
हमे नहीं पता है कि भगवान इसे क्यों करते हैं।
विश्व का सृजन करना, फिर उसे कुछ समय के लिए रखना, फिर उसका संहार करना।
हम सिद्धांत बनाते रहते हैं।
कि यह उनकी लीला है, वे इससे आनंद लेते हैं।
जिनका स्वरूप ही सच्चिदानंद हैं वे ये सब करके आनंद क्यों लेंगे?
पता नहीं।
पर इस रहस्य को उन्होंने ब्रह्मा जी को बताया है।
ब्रह्मा जी को सिर्फ ब्रह्मा जी को ही यह पता है।
अपने हृदय के इस रहस्य को उन्होंने ब्रह्मा जी को ही बताया है वेदों को सौंपते समय।
हृदा शाब्द का यह भी तात्पर्य है।
पुराणं हृदयं स्मृतम्।
पुराणॊं को भी हृदय कहते हैं।
पुराणॊ में क्या है?
घटनाएं, उनका वर्णन।
तो भगवान ने न केवल वेदॊं के रूप में प्रपंच को बनाने उपादान और ज्ञान, उस प्रपंच में जो अरबों घटनाएं घटेंगी, या ब्रह्मा जी को उस प्रपंच में आगे क्या क्या करवाना है इसे भी पुराणों के रूप मे ब्रह्मा जी को दे दिया।
इन पुराणॊं के एक छोटे अंश को ही व्यास जी हर द्वापरयुग में प्रकट करते रहते हैं।
ये वेद बडे बडे पण्डितों को और दार्शनिकों भी भ्रम में डाल देते हैं।
ये सब कहते रहते हैं, वेद में यह है, वेद में वह है।
यह ऐसा है, यह वैसा है।
सब अपने अपने सिद्धांत निकालते रहते हैं।
पर किसी को भी वेदों के वास्तविक रूप के बारे में नही पता- मुह्यन्ति यत्सूरयः।
क्यों कि जैसे भगवान मन और वाणि के पहुंच के बाहर हैं वेद भी मन ओर वाणि के पहुंच के बाहर हैं।
पर वेद के आदेशों का पालन करने से परिपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो सकती है।
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