पूषा रेवत्यन्वेति पन्थाम्। पुष्टिपती पशुपा वाजवस्त्यौ। इमानि हव्या प्रयता जुषाणा। सुगैर्नो यानैरुपयातां यज्ञम्। क्षुद्रान्पशून्रक्षतु रेवती नः। गावो नो अश्वां अन्वेतु पूषा। अन्नं रक्षन्तौ बहुधा विरूपम्। वाजं सनुतां यजमानाय यज्ञम्। (तै.ब्रा.३.१.२)
गर्ग महर्षि ज्योतिष शास्त्र में माहिर थे। गर्ग-संहिता उनके द्वारा ही लिखा हुआ ग्रंथ है। उन्होंने कहा: यह न तुम्हारा दोष है और न तुम्हारी पत्नी की। यह बालक पैदा हुआ रेवती नक्षत्र के अंतिम भाग में। जो कुछ भी हो रहा है ,उसका....
गर्ग महर्षि ज्योतिष शास्त्र में माहिर थे।
गर्ग-संहिता उनके द्वारा ही लिखा हुआ ग्रंथ है।
उन्होंने कहा: यह न तुम्हारा दोष है और न तुम्हारी पत्नी की।
यह बालक पैदा हुआ रेवती नक्षत्र के अंतिम भाग में।
जो कुछ भी हो रहा है ,उसका कारण यही है।
अशुभ समय का जन्म ही इसका कारण है ,और कोई कारण नहीं है।
जगदम्बा दुर्गा माता की आराधना करो, सब कुछ ठीक हो जाएगा।
यह सुनने पर ऋतवाक ने रेवती नक्षत्र को ही शाप दे दिया कि तुम आकाश से गिर पडो, इतना परेशान कर रखा है तुमने हमें।
मुनि का गुस्सा बेकाबू था।
उन्होंने समझा रेवती नक्षत्र ही इन सब के पीछे है और सीधा नक्षत्र को ही शाप दे दिया।
रेवती नक्षत्र सीधा कुमुद पर्वत पर जाकर गिरा; इसके कारण कुमुद का रैवतक नाम भी आ गया।
ऋतवाक ने गर्ग मुनि के द्वारा बताया हुआ विधान से भगवती की पूजा करके अपने दोषों का निवारण कर लिया और सुखी बन गये।
बहुत समय बाद कुमुद पर्वत पर गिरी हुई रेवती नक्षत्र की दीप्ति से एक कन्या उत्पन्न हुई।
उसे देखकर सब को लगा कि साक्षात लक्ष्मी जी का ही आविर्भाव हुआ है।
एक बड़े तपस्वी ब्रह्मर्षि थे, प्रमुच।
प्रमुच ने उसका नाम रखा रेवती और उसे कुमुदाचल पर स्थित अपना आश्रम ले गये।
और उसे अपनी बेटी की तरह पालने लगे।
लडकी बडी हो गयी तो ब्रह्मर्षि अपने लिए दामाद ढूंढने लगे।
अच्छा वर नहीं मिलने पर उन्होंने अपनी अग्निशाला में प्रवेश कर अग्नि भगवान से प्रार्थना की।
अग्नि भगवान प्रकट हुए और प्रमुच से उन्होंने कहा: आपकी कन्या को उचित वर अवश्य मिलेगा।
उनका नाम होगा दुर्दम।
वे एक राजा होंगे और बहुत धर्मिष्ठ, बलवान ,वीर और प्रिय भाषण करने वाले।
संयोगवश राजा दुर्दम उसी समय उस जंगल में शिकार में लगे थे।
वे प्रमुच के आश्रम में आ गये।
वहाँ रेवती मिली तो उसे-प्रिये-कहकर बुलाये और उससे पूछें कि मुनि कहाँ है।
रेवती बोली अग्निशाला में और राजा अग्निशाला के द्वार पर पहुंचे।
मुनि ने राजा का सत्कार किया और कुशल मंगल का प्रश्न किया और बताया कि राजा की पत्नी भी आश्रम में सुखी है।
राजा चौंक गये: मेरी कौन सी पत्नी इस आश्रम में?
मुनि बोले: आपकी पत्नी लावण्य युक्त रेवती यहां रहती है, क्या आप उसे भूल गये?
राजा बोले: मेरी सुभद्रा आदि पत्नियाँ हैं , वे सब तो राज महल में हैं।
रेवती को तो मैं जानता तक नहीं हूँ।
मुनि बोले: आश्रम पहुंचकर आपने-प्रिये-कहकर बुलाया उसे इतनी जल्दी भुला दिये।
राजा ने कहा: मुझपर क्रोध मत कीजिए लेकिन मैं ने-प्रिये-कहकर ऐसे ही बुलाया था।
उसका अन्य अर्थ कोई नहीं था।
मुनि बोले: अर्थ अन्य नहीं था।
लेकिन अग्निदेव ने आपको ऐसे कहने के लिए प्रेरित किया।
मुझे यह पता है क्यों कि अग्निदेव ने खुद मुझे बताया कि आप ही मेरे दामाद बनने वाले हैं।
इसलिए आप बिना किसी शक के मेरी इस कन्या को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए।
राजा मान गये और प्रमुच शादी की तैयारियां करने लगे।
रेवती प्रमुच के पास जाकर बोली: मेरा विवाह रेवती नक्षत्र के समय में ही कराएं।
मुनि बोले: यह तो मुश्किल पड़ेगा क्योंकि रेवती नक्षत्र तो इस वक्त आकाश तक में नहीं है।
ऋतवाक नामक महर्षि ने रेवती को शाप देकर नीचे गिराया था।
और भी नक्षत्र हैं शादी के लायक उनमें से किसी नक्षत्र में करेंगे।
लड़की बोली: मेरे विवाह के लिए उचित रेवती नक्षत्र ही है।
यह मैंने निश्चय कर लिया है, मेरी शादी होगी तो रेवती नक्षत्र में ही।
तपोबल में आप उस ऋतवाक से कम हैं क्या?
रेवती को अपनी तप-शक्ति से वापस आकाश में चढाइए; फिर मैं उसी नक्षत्र में शादी करूँगी।
मुनि ने लडकी की इच्छा के अनुसार रेवती नक्षत्र को वापस आकाश में स्थापित किया।
कन्यादान करने के बाद प्रमुच मुनि ने राजा से कहा: अब मुझे आपकी जो भी इच्छा है बताइए, मैं उसे पूरा करता हूँ।
राजा बोले: मैं स्वायंभुव मनु के वंश का हूँ , मुझे ऐसा पुत्र होने का वरदान दीजिए जो मन्वन्तर का अधिपति बनेगा।