देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते । देवताभ्यो हि पूर्वं पितॄणामाप्यायनं वरम्॥ (वायु तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण) - देवकार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है। अतः देवकार्य से पूर्व पितरोंको तृप्त करना चाहिये।
हे शिव, आप मेरी आत्मा हैं, देवी पार्वती मेरी बुद्धि हैं, मेरे साथी मेरी जीवन ऊर्जा हैं, और यह शरीर आपका मंदिर है। मेरे सभी अनुभव आपकी दिव्य भोग हैं। मेरी नींद गहरी साधना है, मेरा चलना आपके चारों ओर प्रदक्षिणा है, और मेरे सभी शब्द आपके लिए स्तुति हैं। हे शंभु, मैं जो भी कर्म करता हूँ, उसे आपकी पूजा मानता हूँ। इस दृष्टिकोण के साथ जीवन जीने से, भक्त प्रत्येक क्षण को निरंतर भक्ति के रूप में अनुभव करता है, जहाँ साधारण गतिविधियाँ भी पवित्र अनुष्ठानों में बदल जाती हैं। यह श्लोक सिखाता है कि सच्ची पूजा केवल अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, बल्कि सभी कर्मों तक विस्तारित होती है, जो दिव्य उपस्थिति के साथ की जाती है।
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