भगवान कहते हैं, पाण्डवों ने सिर्फ धर्म को देखा, कौरवों ने सिर्फ कर्म को देखा। यह अशान्ति का कारण बन गया।
एक ही भूमि, एक ही समय पर, जब धर्म और कर्म का समन्वय स्थान नहीं होता है, तो वह युद्ध भूमि बन जाती है। भगवान कहते हैं, 'ऐसा मत करो। धर्मपूर्वक कर्म करो। कर्म को धर्म बनाओ। तब अशान्ति नहीं आएगी। दोनों को अलग-अलग मत देखो।'
केवल कर्मनिष्ठ होने से कौरव तो अशान्त थे ही। केवल धर्मनिष्ठ होने से पाण्डव भी अशान्त हो गए थे। दोनों ही पक्ष अशान्त थे। नहीं तो युद्ध कैसे होता?
विश्व के लिए काम करना ही पड़ेगा। नहीं तो विश्व स्थगित हो जाएगा। काम नहीं करोगे तो परिवार को कैसे चलाओगे? सारे शासक, जवान, पुलिसकर्मी, डॉक्टर नाम संकीर्तन में लग जाएंगे तो विश्व का क्या होगा?
तब तो सारे चोरों को, डाकुओं को, सीमा पार शत्रुओं को और कीटाणुओं को भी नाम संकीर्तन में लगना पड़ेगा। पर यह तो होगा नहीं। तो सबको अपना-अपना कर्म तो करना पड़ेगा।
लेकिन कर्म और धर्म को दो समझोगे तो कुंठा आ जाएगी। यही भगवान दिखाते हैं। 'विश्व के लिए कर्म करो, कर्म करते रहो। उसी को अपने आप के लिए, स्वयं के लिए धर्म बना लो। अर्थात अपने आप के लिए जो धर्म है, उसी को विश्व के लिए कर्म के तौर पर करो। दोनों के बीच रेखा मत खींचो। यही गीता का संदेश है।'
कोई बताता है कि धर्म ही सब कुछ है, कर्म कष्टदायक है, आत्मा के लिए हानिकारक है। कोई सोचता है कि वैभव ही सब कुछ है, धर्म जैसा कुछ है ही नहीं।
ये दोनों पक्ष ही मन के अंदर, एक ही मन के अंदर, समय-समय पर आ जाते हैं। एक ही मन कभी धर्मक्षेत्र बन जाता है, तो कभी कुरुक्षेत्र। सोचिए, सुबह से शाम तक हम कभी धार्मिक दृष्टिकोण से सोचते हैं, तो कभी केवल वैभव के दृष्टिकोण से।
इन दोनों का अगर आत्यंतिक समन्वय नहीं हुआ, तो जीवन में अशान्ति रहेगी। इस समन्वय को जीवन में कैसे लाना है, यही गीता दिखाती है। यही गीता का उद्देश्य है।
कर्म को त्यागना समाधान नहीं है। त्याग करके गुफा के अंदर बैठो, पर अगर विवशता वश कभी कर्म करना पड़ा, तो यह अशान्ति वापस आ जाएगी। तो कर्म को त्यागना समाधान नहीं है।
हाँ, चाहे तो अनावश्यक कर्म मत करो, कोई बात नहीं। पर कर्म को बिल्कुल त्यागना असंभव है। यह जब नहीं हो पाता है, वह भी कुंठा का कारण बन जाता है।
'अरे, मुझे जबरदस्ती काम करना पड़ रहा है।' कोई कह रहा था, 'मैं परमार्थ को जान चुका हूँ कि यह सब मिथ्या है। लेकिन जिन्होंने मुझे उधार दे रखा है, वे लोग नहीं समझ रहे हैं। क्या करूँ? वे तो अभी भी पीछे लगे हुए हैं।'
तो कर्म से भागना समाधान नहीं है। यही भगवान बताते हैं। कर्म और धर्म दोनों का समन्वय करो। तब कर्म भी आनंददायक बन जाएगा। यही गीता का संदेश है।
ज्ञान जैसा दृष्टि नहीं और सत्य जैसा तप नहीं है। आसक्ति सबसे बड़ा दुःख का कारण है, जबकि त्याग सबसे बड़ा सुख लाता है।
ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार अन्नदान करने वाले की आयु, धन-संपत्ति, दीप्ति और आकर्षणीयता बढती हैं । उसे ले जाने स्वर्गलोक से सोने से बना विमान आ जाता है । पद्म पुराण के अनुसार अन्नदान के समान कॊई दूसरा दान नहीं है । भूखे को खिलाने से इहलोक और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है । परलोक में पहाडों के समान स्वादिष्ठ भोजन ऐसे दाता के लिए सर्वदा तैयार रहता है । अन्न के दाता को देवता और पितर आशीर्वाद देते हैं । उसे सारे पापों से मुक्ति मिलती है ।
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