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बहुत अच्छा लग रहा है यह सब 🌼... बहुत बहुत धन्यवाद 🙏 -paritosh

😊😊😊 -Abhijeet Pawaskar

बहुत बढ़िया मंत्र🌺🙏🙏🙏 -राम सेवक

वेदधारा ने मेरे जीवन में बहुत सकारात्मकता और शांति लाई है। सच में आभारी हूँ! 🙏🏻 -Pratik Shinde

आपके मंत्रों से बहुत लाभ मिला है। 😊🙏🙏🙏 -मधुबाला

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पति के किस तरफ होना चाहिए पत्नी?

सारे धार्निक शुभ कार्यों में पत्नी पति के दक्षिण भाग में रहें, इन्हें छोडकर- १. अभिषेक या अपने ऊपर कलश का तीर्थ छिडकते समय। २. ब्राह्मणॊं के पैर धोते समय। ३. ब्राह्मणों से आशीर्वाद स्वीकार करते समय। ४. सिन्दूर देते समय। ५ शांति कर्मों में। ६. मूर्ति प्रतिष्ठापन में। ७. व्रत के उद्यापन में। ८. विवाह होकर माता-पिता के घर से निकलते समय। ९. विवाह होकर पहली बार माता-पिता के घर वापस आते समय। १०. भोजन करते समय। ११. सोते समय।

महाभारत के अनुसार गांधारी को सौ पुत्र कैसे प्राप्त हुए?

गांधारी ने ऋषि व्यास जी से सौ शक्तिशाली पुत्रों का वरदान मांगा। व्यास जी के आशीर्वाद से वह गर्भवती हो गई, लेकिन उसे लंबे समय तक गर्भधारण का सामना करना पड़ा। जब कुंती के पुत्र का जन्म हुआ तो गांधारी को निराशा हुई और उसने अपने पेट पर प्रहार किया। उसके पेट से मांस का एक लोथड़ा निकला। व्यास जी फिर आए, कुछ अनुष्ठान किए और एक अनोखी प्रक्रिया के माध्यम से उस गांठ को सौ बेटों और एक बेटी में बदल दिया। यह कहानी प्रतीकवाद से समृद्ध है, जो धैर्य, हताशा और दैवीय हस्तक्षेप की शक्ति के विषयों पर प्रकाश डालती है। यह मानवीय कार्यों और दैवीय इच्छा के बीच परस्पर क्रिया को दर्शाता है।

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धर्म शास्त्र में राजाओं के व्यसनों की संख्या सात बतायी गई है । कौन सा उनमें से नहीं है ?

पुमान् पुंसः परिजातोऽश्वत्थः खदिरादधि । स हन्तु शत्रून् मामकान् यान् अहं द्वेष्मि ये च माम् ॥१॥ तान् अश्वत्थ निः शृणीहि शत्रून् वैबाधदोधतः । इन्द्रेण वृत्रघ्ना मेदी मित्रेण वरुणेन च ॥२॥ यथाश्वत्थ निरभनोऽन्तर्महत�....

पुमान् पुंसः परिजातोऽश्वत्थः खदिरादधि ।
स हन्तु शत्रून् मामकान् यान् अहं द्वेष्मि ये च माम् ॥१॥
तान् अश्वत्थ निः शृणीहि शत्रून् वैबाधदोधतः ।
इन्द्रेण वृत्रघ्ना मेदी मित्रेण वरुणेन च ॥२॥
यथाश्वत्थ निरभनोऽन्तर्महत्यर्णवे ।
एवा तान्त्सर्वान् निर्भङ्ग्धि यान् अहं द्वेष्मि ये च माम् ॥३॥
यः सहमानश्चरसि सासहान इव ऋषभः ।
तेनाश्वत्थ त्वया वयं सपत्नान्त्सहिषीमहि ॥४॥
सिनात्वेनान् निर्ऋतिर्मृत्योः पाशैरमोक्यैः ।
अश्वत्थ शत्रून् मामकान् यान् अहं द्वेष्मि ये च माम् ॥५॥
यथाश्वत्थ वानस्पत्यान् आरोहन् कृणुषेऽधरान् ।
एवा मे शत्रोर्मूर्धानं विष्वग्भिन्द्धि सहस्व च ॥६॥
तेऽधराञ्चः प्र प्लवन्तां छिन्ना नौरिव बन्धनात्।
न वैबाधप्रणुत्तानां पुनरस्ति निवर्तनम् ॥७॥
प्रैणान् नुदे मनसा प्र चित्तेनोत ब्रह्मणा ।
प्रैणान् वृक्षस्य शाखयाश्वत्थस्य नुदामहे ॥८॥

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