ॐ ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोर घोरतर तनुरूप चट चट प्रचट प्रचट कह कह वम वम बन्धय बन्धय खादय खादय हुं फट् स्वाहा ।
यह मंत्र अघोर रुद्र के एक शक्तिशाली, उग्र रूप का आह्वान करता है। 'स्फुर', 'प्रस्फुर', 'घोर', और 'घोरतर' जैसे अक्षरों का बार-बार प्रयोग मंत्र में एक गतिशील, तीव्र शक्ति का आह्वान करता है। 'चट चट' और 'प्रचट प्रचट' शब्द अचानक, जोरदार क्रिया या अभिव्यक्ति का संकेत देते हैं। यह मंत्र अघोर रुद्र को किसी भी बाधा या नकारात्मक प्रभाव को बाँधने ('बन्धय') और निगलने ('खादय') के लिए आमंत्रित करता है। अंतिम अक्षर 'हुं फट् स्वाहा' इस प्रबल ऊर्जा के प्रति समर्पण या संपूर्ण समर्पण का प्रतीक हैं।
इस मंत्र को सुनने से साहस और दृढ़ता की भावना जागृत हो सकती है। इसे बाधाओं को काटने और किसी के मार्ग में आने वाली किसी भी नकारात्मकता को दूर करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। अक्षरों की पुनरावृत्ति मन की एकाग्रता को मजबूत करती है, जिससे स्पष्टता और संकल्प प्राप्त करने की दिशा में ऊर्जा का प्रवाह होता है।
इस मंत्र का नियमित रूप से सुनना मानसिक शक्ति को बढ़ा सकता है और नकारात्मक प्रभावों से सुरक्षा प्रदान कर सकता है। यह विशेष रूप से डर पर विजय पाने, व्यक्तिगत बाधाओं को तोड़ने और जीवन की चुनौतियों के प्रति एक निर्भीक दृष्टिकोण विकसित करने में प्रभावी है। इस मंत्र के शक्तिशाली कंपन नकारात्मक विचारों और भावनाओं को भी दूर करने में मदद कर सकते हैं, जिससे सकारात्मकता और विकास के लिए स्थान बनता है।
यजुर्वेद का पवित्र आदेश है कि यह चराचरात्मक सृष्टि परमेश्वर से व्याप्य है, जो सर्वाधार, सर्वनियन्ता, सर्वाधिपति, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, और सभी गुणों तथा कल्याण का स्वरूप हैं। इसे समझते हुए, परमेश्वर को सदा अपने साथ रखें, उनका निरंतर स्मरण करें, और इस जगत में त्यागभाव से केवल आत्मरक्षार्थ कर्म करें तथा इन कर्मों द्वारा विश्वरूप ईश्वर की पूजा करें। अपने मन को सांसारिक मामलों में न उलझने दें; यही आपके कल्याण का मार्ग है। वस्तुतः ये भोग्य पदार्थ किसी के नहीं हैं। अज्ञानवश ही मनुष्य इनमें ममता और आसक्ति करता है। ये सब परमेश्वर के हैं और उन्हीं के लिए इनका उपयोग होना चाहिए। परमेश्वर को समर्पित पदार्थों का उपभोग करें और दूसरों की संपत्ति की आकांक्षा न करें।
किसी घर या भूखंड की पूर्व और दक्षिण दिशाएं जहां मिलती हैं उस स्थान को दक्षिण-पूर्व कहते हैं । वास्तु शास्त्र में दक्षिण-पूर्व दिशा को आग्नेय कोण भी कहते हैं।