ऋतं वच्मि सत्यं वच्मि
यहाँ दो शब्द हैं – ऋत और सत्य।
मन में सत्यता को कहते हैं 'ऋत', और वचन में सच्चाई को कहते हैं 'सत्य'।
ऋषि अथर्वा कहते हैं –
'जब मैं कहता हूँ कि 'तत्वमसि' का मूर्त भाव गणेशजी हैं, कर्ता, धर्ता, और हर्ता तीनों ही गणेशजी हैं, यह सब कुछ, यह सारा विश्व गणेशजी ही हैं – नित्य अनश्वर आत्मा गणेशजी हैं – तो मैं मन और वाणी दोनों से सच्चा हूँ।
यह जो भी मैं कह रहा हूँ, यह परम सत्य है, यह मेरा ही अनुभव है – मैं किसी और द्वारा कही हुई बात का उद्धरण नहीं कर रहा हूँ।
यह मेरा अनुभव है,' कहते हैं ऋषि।
ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं है, लेकिन ब्रह्म को पूर्ण रूप से जानना चाहोगे तो वह हैं श्री गणेश। बाकी सब ब्रह्म के ही अंश हैं। संपूर्ण रूप से ब्रह्म को जानना हो, ब्रह्म तत्व को जानना हो तो गणेशजी को जानो।
जैसे समुद्र में एक घड़ा हो – उस घड़े के अन्दर भी समुद्र का ही पानी है, लेकिन उसे समुद्र नहीं कहोगे न।
विशालता में समुद्र और उसी में डूबे हुए घड़े के अन्दर के पानी में जो अंतर है – वही अंतर गणेशजी और बाकी देवताओं में है।
सारे देवता उनके ही अंश हैं। अगर तुम्हें संपूर्ण रूप से ब्रह्म को जानना है तो गणेशजी की तरफ देखो, उनको जानो।
अव त्वं माम्
अव – मतलब रक्षा कीजिए।
अव त्वं माम् – 'आप मेरी रक्षा कीजिए'।
अव वक्तारम् –
वक्ता – बोलने वाला।
अथर्वशीर्ष न केवल एक स्तुति है, यह एक संपूर्ण साधना पद्धति है। इसमें गुरु है और शिष्य है।
गुरु है वक्ता और शिष्य है श्रोता।
अव श्रोतारम्
गुरु की रक्षा कीजिए।
शिष्य की रक्षा कीजिए।
अव दातारं अव धातारं
दाता – इस मंत्र को देने वाला गुरु।
धाता – इसे स्वीकार करने वाला और धारण करने वाला शिष्य।
दोनों की रक्षा कीजिए।
अव अनूचानं, अव शिष्यं
ऋषि कहते हैं कि इसका गुरु साधारण नहीं होना चाहिए।
अनूचानः – 'सांगवेदविचक्षणः'।
अथर्वशीर्ष उन्हीं से सीखना चाहिए जो वेद और उसके अंगों में पारंगत हों। तब जाकर यह फलेगा। पुस्तक से या न्यून योग्यता वाले गुरु से सीखने से यह फल नहीं देगा।
'अव अनूचानं अव शिष्यं' – ऐसे अनूचान गुरु और उनके शिष्य की रक्षा कीजिए।
अथर्वा ऋषि अपनी पूरी शिष्य परंपरा – आगे आने वाले सारे गुरु और शिष्यों के लिए गणेशजी से प्रार्थना कर रहे हैं।
अव पश्चात्तात्
पीछे से आने वाली सारी आपत्तियों और विघ्नों से रक्षा कीजिए।
अव पुरस्तात्
सामने से आने वाली सारी आपत्तियों और विघ्नों से रक्षा कीजिए।
अवोत्तरात्तात् – बाईं तरफ से आने वाली सारी आपत्तियों और विघ्नों से रक्षा कीजिए।
अव दक्षिणात्तात् – दाहिनी तरफ से आने वाली सारी आपत्तियों और विघ्नों से रक्षा कीजिए।
अव च ऊर्ध्वात्तात् – ऊपर की तरफ से आने वाली सारी आपत्तियों और विघ्नों से रक्षा कीजिए।
अव अधरात्तात् – नीचे की तरफ से आने वाली सारी आपत्तियों और विघ्नों से रक्षा कीजिए।
सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात्
सब तरफ से, बाहर से और अन्दर से रक्षा कीजिए।
ब्रह्मा को सृजन का कार्यभार गणेशजी ने ही सौंपा था।
ब्रह्माजी ने गणेशजी से पूछा – 'आपने काम तो दे दिया, लेकिन किस चीज का सृजन करूँ, यह मुझे नहीं पता है।'
गणेशजी बोले – 'मैं आपको एक दृश्य दिखाता हूँ जिससे आपको समझ में आ जाएगा कि क्या बनाना है।'
ब्रह्माजी ने इस सारे विश्व को श्री गणेश के पेट के अंदर देखा – और यह सारा विश्व उनके अंदर ऐसा दिख रहा था जैसे एक हाथी के ऊपर एक मक्खी बैठी हो।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, सात समुद्र, नदियाँ, पेड़-पौधे, यक्ष, किन्नर, गंधर्व, ऋषि-मुनि, मनुष्य, पशु, पक्षी – सब कुछ गणेशजी के पेट के अंदर।
ब्रह्माजी चौंक गए।
लेकिन जब ब्रह्माजी सृजन करने लगे तो उन्हें बहुत सारे विघ्नों का सामना करना पड़ा। उग्र, उद्दंड, कुरूप प्राणी उन्हें चारों ओर से घेरने लगे – किसी की तीन आँखें, किसी के पाँच हाथ, किसी का कुएँ जैसा मुँह, किसी के पाँच-छह होंठ, किसी के पाँच पैर।
हजारों ऐसे प्राणी चारों तरफ चिल्लाते और आक्रोश करते हुए ब्रह्माजी को तंग करने लगे।
कोई उन्हें पीट रहा था, कोई उनकी दाढ़ी खींच रहा था, कोई उन्हें धक्का दे रहा था, कोई गालियाँ दे रहा था।
ब्रह्माजी को तब गणेशजी याद आए।
ब्रह्माजी ने गणेशजी की कृपा के लिए प्रार्थना की।
उन्हें एक आकाशवाणी सुनाई दी – 'तपस्या करो, तपस्या करो।'
लेकिन यह कोई समाधान नहीं हुआ।
ब्रह्माजी को नहीं पता था तपस्या कैसे करनी है।
एक और आकाशवाणी हुई – 'पीपल को ढूँढो, पीपल को ढूँढो।'
ब्रह्माजी को कुछ समझ में नहीं आया।
उनके सामने एक और दृश्य आया – ब्रह्माजी पानी में तैर रहे थे।
आकाश तक ऊँचा पानी, और उस पानी में उन्हें एक पीपल का पेड़ दिखाई दिया।
उस पीपल के एक पत्ते पर एक बालक लेटा था – चार हाथ, पूरे शरीर में आभूषण, सिर पर मुकुट, हाथी का सिर, उस पर बालचंद्र, करोड़ों सूर्यों की दीप्ति।
उस बालक ने ब्रह्माजी पर अपनी सूँड से पानी की फुहार डाली।
फिर वह बालक उस पत्ते से उठकर ब्रह्माजी की गोद में बैठ गया और बोला –
'आप बच्चों जैसी हरकतें कर रहे हैं। सृजन करना है तो अच्छी तरह तैयारी करके आना चाहिए न।
इसलिए आपको विघ्नों का सामना करना पड़ रहा है। देखिए, इतनी बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन तपस्या करने तक नहीं आती।
आप कैसे करेंगे यह सब? और अपने आपको बहुत काबिल समझते हैं।
न जानकारी, न तैयारी। सबसे पहले मैं आपको तपस्या कैसे करनी है, यह सिखाता हूँ।'
फिर श्री गणेश ने ब्रह्मा को एकाक्षर मंत्र की दीक्षा दी।
'इस मंत्र की साधना कीजिए, इसका पुरश्चरण कीजिए। उसके बाद मैं आपके सामने फिर प्रकट होकर आपकी अभिलाषा को पूरी कर दूँगा।'
ब्रह्माजी एकाक्षर गणेश मंत्र की साधना करने लगे।
तपस्या करते-करते उनके मुँह से अग्नि की ज्वालाएँ निकलने लगीं और उन ज्वालाओं ने उन विघ्नकारी प्राणियों का विनाश कर दिया।
तपस्या समाप्त होने पर गणेशजी फिर प्रकट हुए।
हजारों-करोड़ सूर्यों की रोशनी, जिससे ब्रह्माजी को लगा कि वे अंधे हो जाएँगे।
गणेशजी बोले – 'चिंता मत कीजिए, मैं अपना सौम्य रूप धारण कर लेता हूँ। आपके तप से मैं प्रसन्न हूँ। आपको क्या वर चाहिए?'
ब्रह्माजी ने तीन वर माँगे –
गणेशजी के प्रति उनकी अडिग भक्ति बनी रहे,
जैसे गणेशजी चाहें, वैसे सृष्टि करने की क्षमता मिले,
और आगे कोई भी विघ्न आए तो गणेशजी का स्मरण करते ही वह हट जाए।
गणेशजी ने ब्रह्माजी को तीनों वरदान दे दिए और वे सृष्टि के कार्य में लग गए।
भगवान कृष्ण के प्रस्थान, जिसे महाप्रस्थान के नाम से जाना जाता है, का वर्णन महाभारत में किया गया है। पृथ्वी पर अपने दिव्य कार्य को पूरा करने के बाद - पांडवों का मार्गदर्शन करना और भगवद गीता प्रदान करना - कृष्ण जाने के लिए तैयार हुए। वह एक पेड़ के नीचे ध्यान कर रहे थे तभी एक शिकारी ने गलती से उनके पैर को हिरण समझकर उन पर तीर चला दिया। अपनी गलती का एहसास करते हुए, शिकारी कृष्ण के पास गया, जिन्होंने उसे आश्वस्त किया और घाव स्वीकार कर लिया। कृष्ण ने शास्त्रीय भविष्यवाणियों को पूरा करने के लिए अपने सांसारिक जीवन को समाप्त करने के लिए यह तरीका चुना। तीर के घाव को स्वीकार करके, उन्होंने दुनिया की खामियों और घटनाओं को स्वीकार करने का प्रदर्शन किया। उनके प्रस्थान ने वैराग्य की शिक्षाओं और भौतिक शरीर की नश्वरता पर प्रकाश डाला, यह दर्शाते हुए कि आत्मा ही शाश्वत है। इसके अतिरिक्त, शिकारी की गलती पर कृष्ण की प्रतिक्रिया ने उनकी करुणा, क्षमा और दैवीय कृपा को प्रदर्शित किया। इस निकास ने उनके कार्य के पूरा होने और उनके दिव्य निवास, वैकुंठ में उनकी वापसी को चिह्नित किया।
विदुर, राजा धृतराष्ट्र के सौतेले भाई, अपने धर्म के गहरे ज्ञान और धर्म के प्रति अटूट समर्पण के लिए प्रसिद्ध थे। जब कृष्ण महायुद्ध से पहले शांति वार्ता के लिए हस्तिनापुर आए, तो उन्होंने राजमहल के बजाय विदुर के विनम्र निवास में ठहरने का चयन किया। अपने साधारण साधनों के बावजूद, विदुर ने कृष्ण की अत्यंत भक्ति और प्रेम के साथ सेवा की, सरल भोजन के साथ महान आतिथ्य का प्रदर्शन किया। कृष्ण का यह चयन विदुर की सत्यनिष्ठा और उनकी भक्ति की पवित्रता को दर्शाता है, जो भौतिक संपत्ति और शक्ति से परे है। यह कहानी सच्चे आतिथ्य के मूल्य और नैतिक सत्यनिष्ठा के महत्व को सिखाती है। यह बताती है कि सच्ची महानता और दिव्य कृपा का निर्धारण किसी की सामाजिक स्थिति या धन से नहीं होता, बल्कि हृदय की निष्कपटता और पवित्रता से होता है। कृष्ण के प्रति विदुर की विनम्र सेवा इस बात का उदाहरण है कि जीवन में किसी की स्थिति की परवाह किए बिना, दयालुता और भक्ति के कार्य ही वास्तव में महत्वपूर्ण हैं।