आगे 'तत्वमसि' वाक्य का अर्थ और विस्तार किया जा रहा है।
'त्वमेव केवलं कर्तासि, त्वमेव केवलं धर्तासि, त्वमेव केवलं हर्तासि'।
कर्ता, धर्ता और हर्ता ये तीनों आप ही हैं।
'त्वमेव केवलं कर्तासि, धर्तासि, हर्तासि'।
त्रिदेव के रूप धारण करके जगत की सृष्टि, पालन और संहार श्री गणेशजी ही करते हैं।
जब भी गणेशजी का नाम लेते हैं तो मन में वही कहानी आती है – एक नन्हा मुन्ना बालक, शिवजी के साथ युद्ध करता है, सिर कट जाता है, और बाद में गजानन बन जाता है।
ऋषि अथर्वा कहते हैं – ऐसा नहीं है।
साक्षात श्री गणेश ही ब्रह्मा बनकर जगत की सृष्टि करते हैं।
साक्षात श्री गणेश ही विष्णु बनकर जगत का पालन करते हैं।
साक्षात श्री गणेश ही रुद्र बनकर जगत का संहार करते हैं।
तमिलनाडु में गणेशजी को कहते हैं – 'पुल्लयार' यानी 'बेटा'।
अथर्वा ऋषि कहते हैं – यह सिर्फ प्यारा लाड़ला बेटा नहीं है उमा-शंकर दंपती का।
यह वही है जो जगत का कर्ता, जगत का धर्ता और जगत का हर्ता है।
आगे बढ़ते हैं –
'त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि'।
'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' – यह भी वेदान्त शास्त्र का एक महावाक्य है।
पहले हमने 'तत्वमसि' देखा – परमात्मा और जीवात्मा अभिन्न हैं, इस तत्व को अपने अनोखे रूप से गणेशजी हमें दिखाते हैं।
अब है 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म'।
ब्रह्म और ब्रह्मा में अंतर
ब्रह्म वह है जो सच्चिदानन्द है, अद्वैत है, अनश्वर है, चिंतन और शब्द से परे है, सर्वव्यापी है, स्थान और समय से सीमित नहीं है। उसके पैर नहीं हैं लेकिन वह हर जगह घूमता है, उसकी आँखें नहीं हैं लेकिन वह सब कुछ देखता है, उसके कान नहीं हैं लेकिन वह सब कुछ सुनता है, उसका मन नहीं है लेकिन वह सब कुछ जानता है। ब्रह्म हर चीज का नियंता है, और सृष्टि, पालन, संहार तीनों ब्रह्म के अधीन हैं।
'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' – यह जो कुछ भी दिखाई देता है, सुनाई देता है – पशु, पक्षी, प्राणी, पहाड़, नदियाँ, बादल, चर-अचर सब कुछ ब्रह्म ही है।
ब्रह्म के अलावा कुछ भी नहीं है।
ब्रह्मा ब्रह्म के अंतर्गत हैं, और यह ब्रह्म साक्षात श्री गणेश हैं।
'त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि'
'तत्वमसि', 'त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि'।
जीवात्मा और परमात्मा, और समस्त विश्व – ये सब श्री गणेश ही हैं।
जब हम कहते हैं कि ब्रह्म श्री गणेश हैं तो इसका अर्थ यह है कि ब्रह्मा भी श्री गणेश हैं। न केवल ब्रह्मा, विष्णु भी श्री गणेश ही हैं, महादेव भी श्री गणेश ही हैं, तैंतीस करोड़ भिन्न-भिन्न देवता वास्तव में श्री गणेश के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं।
श्री गणेश के सिवा इस जगत में और कुछ भी नहीं है।
गणेशजी हमें यह दिखाते ही रहते हैं – याद दिलाते ही रहते हैं कि 'सब कुछ मैं ही हूँ' – कभी गोबर में दिखाई देते हैं, कभी रास्ते में पड़ा हुआ पत्थर गणेशजी का रूप धारण कर लेता है, कभी पेड़ में, कभी फल में, कभी नारियल में, कभी छोटी-छोटी कौड़ियों में, कभी बादलों में, और कभी हवन की अग्नि में।
'त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्'।
आत्मा, जिसे सबके 'अन्तर्यामी' कहते हैं – यानी भीतर से नियंत्रण करने वाला।
वह आत्मा आप ही हैं।
1. स्नान 2. संध्या वंदन - सूर्य देव से प्रार्थना करना। 3. जप - मंत्र और श्लोक। 4. घर पर पूजा/मंदिर जाना। 5. कीड़ों/पक्षियों के लिए घर के बाहर थोड़ा पका हुआ भोजन रखें। 6. किसी को भोजन कराना।
धरती चार स्तंभों से टिकी है: करुणा, विनम्रता, सहायता और आत्म-नियंत्रण। ये गुण दुनिया में संतुलन और सामंजस्य बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। इन गुणों को अपनाकर व्यक्ति समाज में योगदान देता है और व्यक्तिगत विकास करता है। करुणा अपनाने से सहानुभूति बढ़ती है; विनम्रता से अहंकार दूर होता है; सहायता से निःस्वार्थ सेवा की भावना आती है, और आत्म-नियंत्रण से अनुशासित जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। ये सभी गुण मिलकर एक संतुलित और अर्थपूर्ण जीवन की मजबूत नींव बनाते हैं।
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