नारदजी ने कहा -भगवन्! मैं धर्मराज और सावित्री के संवाद में निर्गुण-निराकार परमात्मा श्रीकृष्ण का निर्मल यश सुन चुका। वास्तव में उनके गुणों का कीर्तन मङ्गलों का भी मङ्गल है। प्रभो! अब मैं भगवती लक्ष्मी का उपाख्यान सुनना चाहता हूँ। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन् ! सर्वप्रथम भगवती लक्ष्मी की किसने पूजा की? इन देवी का कैसा स्वरूप है और किस मन्त्र से इनकी पूजा होती है? आप मुझे इनका गुणानुवाद सुनाने की कृपा कीजिये।
भगवान् नारायण बोले - ब्रह्मन्! प्राचीन समय की बात है। सृष्टि के आदि में परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के वामभाग से रासमण्डल में भगवती श्रीराधा प्रकट हुईं। उन परम सुन्दरी श्रीराधा के चारों ओर वटवृक्ष शोभा दे रहे थे। उनकी अवस्था ऐसी थी, मानो द्वादशवर्षीया देवी हों। निरन्तर रहनेवाला तारुण्य उनकी शोभा बढ़ा रहा था। उनका दिव्य विग्रह ऐसा प्रकाशमान था, मानो श्वेत चम्पक का पुष्प हो। उन मनोहारिणी देवी के दर्शन परम सुखी बनानेवाले थे। उनका प्रसन्नमुख शरत्पूर्णिमा के कोटि-कोटि चन्द्रमाओं की प्रभासे पूर्ण था। उनके विकसित नेत्रों के सामने शरत्काल के मध्याह्नकालिक कमलों की शोभा छिप जाती थी। परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के साथ विराजमान रहनेवाली वे देवी उनकी इच्छा के अनुसार दो रूप हो गयीं। रूप, वर्ण, तेज, अवस्था, कान्ति, यश, वस्त्र, आकृति, आभूषण, गुण, मुस्कान, अवलोकन, वाणी, गति, मधुर-स्वर, नीति तथा अनुनय-विनयमें दोनों राधा तथा लक्ष्मी समान थीं। श्रीराधा के बाँयें अंश से लक्ष्मीका प्रादुर्भाव हुआ और अपने दाहिने अंशमें श्रीराधा स्वयं ही विद्यमान रहीं। श्रीराधा ने प्रथम परात्पर प्रभु द्विभुज भगवान् श्रीकृष्ण को पतिरूप से स्वीकार कर लिया। भगवान्का वह विग्रह अत्यन्त कमनीय था। महालक्ष्मी ने भी श्रीराधाके वर लेनेके पश्चात् उन्हीं को पति बनाने की इच्छा की। तब भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें गौरव प्रदान करने के विचार से ही स्वयं दो रूपों में प्रकट हो गये। अपने दक्षिण अंश से वे दो भुजाधारी श्रीकृष्ण ही बने रहे और वाम अंशसे चतुर्भुज विष्णु के रूपमें परिणत हो गये। उन्हों ने महालक्ष्मी को भगवान् विष्णु की सेवामें समर्पित कर दिया।
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