चैतन्य चरितामृत

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वैभव लक्ष्मी के व्रत करने से क्या फल मिलता है?

वैभव लक्ष्मी व्रत करने से सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती है । इससे धन, स्वास्थ्य और सुख में वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त, वैभव लक्ष्मी के लिए उपवास करने से शरीर और मन शुद्ध हो जाते हैं ।

मंत्र कितने दिन में सिद्ध होता है?

हर मंत्र को सिद्ध करने के लिए उसके लिए बतायी गयी उतनी संख्या जाप करना जरूरी होता है। उतनी बार जाप करने से मंत्र सिद्ध होता है। कोई मंत्र एक ही दिन में, कोई मंत्र ७ दिनों में और कोई मंत्र २१ दिनों में सिद्ध होता है।

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इनमें से कौन सा मन्दिर वैष्णॊदेवी से जुडा हुआ है ?

जगन्नाथस्त स्मित् ऽभवद्वेदाचार्यः
द्विजकुलपयोधीन्दुसदृशो- सकलगुणयुक्तो गुरुसमः ।
स कृष्णाङ्घ्रिध्यानप्रबलतरयोगेन मनसा विशुद्धः प्रेमाद्र नवशशिकलेवाशु बवृधे ॥ २४ ॥

इति श्रीचैतन्यचरिते महाकाव्ये प्रथम प्रक्रमे अवतारानुक्रमः प्रथमः सर्गः

उक्त नवद्वीप में द्विजकुलपयोधि के इन्दु सदृश वेदाचार्य्य- वृहस्पति तुल्य सकल गुणयुक्त; श्रीकृष्ण ध्यान विधौत हृदय, प्रेमपरि प्लुतान्तः करण जगन्नाथ नामक वित्रवर उत्पन्न हुयेथे, नवशशी कला के समान जिनकी कान्ति वद्धित होती थी ||२४||

इति श्रीचैतन्यचरिते महाकाव्ये प्रथम प्रक्रमे अवतारानुक्रमः प्रथमः सर्गः

अथ तस्य
द्वितीयः सर्गः
गुरुश्चक्रे सर्वशास्त्रार्थवेदिनः ।
पदवीमिति तत्त्वज्ञः श्रीमन्मिश्रपुरन्दरः ॥१॥

तमेकदा सत्कुलीनं पण्डितं धर्मिणाम्बरम् ।
श्रीमन्नीलाम्बरो नाम चक्रवर्ती महामनाः ॥२॥

अनन्तर गुरुदेवने सर्व शास्त्रार्थ निपुणता को देखकर उनको तत्त्वज्ञमिश्रपुरन्दर पदवी से विभूषित किया ||१||
एकदिन नीलाम्बर चक्रवर्ती नामक महामनाः ब्राह्मणने- धार्मिकाग्रगण्य सनुकुलीन पण्डित की अव्यर्थना कर शचीनाम्नी स्वीय

समाहूयाददत् कन्यां शचीं स कुलकृत्शदः । तां प्राप्य सोऽपि बवृधे शचीमिव पुरन्दरः ॥३॥
ततो गेहे निवसतस्तस्य धर्मो व्यवर्द्धत ।
अतिय्यैः शान्तिकैः शौचै नित्यक म्यक्रिया फलैः ॥४॥
तत्र क लेन कियता तस्याष्टौ कन्यकाः शुभाः ।
बभूवुः क्रमशो देवात्ताः पञ्चत्वं गताः शची ॥५॥
वात्सल्य दुःखतप्तेन जगाम मनसा पतिम् ।
पुत्रार्थं शरणं श्रीमान् पितृयज्ञ चकार सः ॥६॥
कालेन कियता लेभे पुत्रं सुरसुतोपमम् ।
मुदमाप जगन्नाथो निधि प्राप्ययथाऽधनः ॥७॥

कन्या का अर्पण उनको कर दिया । पुरन्दर भी कुलरक एवं शान्ति प्रद उक्त कन्या को प्राप्त कर शचीपति इन्द्र के समान शोभित हुये थे ||३||
उस समय से उनके गृह धर्म समूह निरन्तर वद्धित होने लगे थे । एवं अतिथिसत्कार, शान्तिकर्म, शुद्धिकर्म, नित्य काम्य कर्मा- नुष्ठान के द्वारा गृहधर्म समुज्ज्वल हुआ ||४||
कियत् काल के मध्य में शुभदर्शना उनकी अष्ट कन्या हुई थीं, एवं दैवक्रम से क्रमशः वे सब पश्ञ्चत्व प्राप्त भी हुई ||५||
वात्सल्य दुःख से सन्तप्त होकर शची ने मनसा श्रीहरिकी शरण ग्रहण किया, एवं श्रीमान् जगन्नाथ ने भी पितृयज्ञका अनुष्ठान किया ||६||
कियत् कालानन्तर देवपुत्रोपम पुत्ररत्न का लाभ उन्होंने किया। एवं अधनजन जिस प्रकार धन प्राप्त होने से आनन्दित होता है-जगन्नाथ भी उस प्रकार ही आनन्दित हुये थे ॥७॥

नाम तस्य पिता चक्र श्रीमतो विश्वरूपकः ।
पठता तेन कालेन स्वल्पेनैव महात्मना ॥८॥
वेदांश्च न्यायशास्त्रञ्च ज्ञातः सद्योग उत्तमः ।
स सर्वज्ञः सुधीः शान्तः सर्वेषामुपकारकः ॥६॥
हरेर्ध्यानपरो नित्यं विषये नाकोरन्मनः ।
श्रीमद्भागवत रसास्वादमत्तो निरन्तरम् ॥१०॥
तस्यानुजो जगद्योनिरजो यज्ञे स्वयं प्रभुः ।
इन्द्राजो यथोपेन्द्रः कश्यपाददितेः सुतः ॥११॥
हरिकीर्तनपरां कृत्वा च त्रिजगतीं स्वयम् ।
उषित्वा क्षेत्रप्रवरे पुरुषोत्तमसंज्ञके ॥१२॥

पिता ने उस बालक का नाम श्रीमान् विश्वरूप रखा । महात्मा विश्वरूप ने भी स्वल्पकाल में ही वेद न्यायशास्त्र, प्रभृति शास्त्राsध्यायन से विमल बुद्धि को प्राप्त किया । एवं वह शान्त, सुधी सर्वज्ञ होकर प्राणिमात्र के उपकारार्थ आत्मनियोग किया था ||
निरन्तर श्रीहरि ध्यान परायण होने के कारण उनका मनः विषयासक्त नहीं हुआ, एवं निरन्तर श्रीमद्भागवत रसास्वादमत्त रहा ॥१०॥
उनका अनुज - जगद्योनि नित्य पुराणपुरुष स्वयंप्रभु- जिसप्रकार कश्यप अदिति से आविर्भूत होकर इन्द्र के अनुज उपेन्द्र नाम से अभिहित हुये थे, तद्रूप यहाँपर भी आत्मप्रकाश आप किये थे ||११||
एवं पुरुषोत्तमसंज्ञक क्षेत्र प्रवर में स्वयं निवासकर विजगत् को श्रीहरि सङ्कीर्त्तनपरायण किये थे ॥ १२ ॥

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